Sharad Pawar: On My Terms, शरद पवार अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि जब वह सिर्फ 3 दिन के थे तो अपनी मां, शारदाबाई गोविंदराव पवार की गोद में उनका प्रशासन और सियासत से पहला एनकाउंटर हुआ. दिन था 15 दिसंबर 1940. पुणे की लोकल बॉडी बोर्ड की मेंबर थीं उनकी मां. बोर्ड की अहम बैठक होनी थी और शरद पवार तीन दिन पहले ही पैदा हुए थे. मां को यह बैठक मिस नहीं करनी थी, तो नवजात शरद को लेकर वह बैठक में पहुंच गईं. आत्मकथा की ये शुरुआती पंक्तियां बताती हैं कि शरद पवार सियासत में इतने टफ बने तो कैसे. आजतक निजी तौर पर शरद पवार ने अपना कोई चुनाव नहीं हारा है. पर आज महाराष्ट्र के बारामती का किंग कहा जाने वाला यह राजनेता अपनी पार्टी ही हार बैठा है. शरद पवार से अलग होकर उनके भतीजे अजित पवार ने पहले महाराष्ट्र में सरकार में आने की जंग जीती. इसके बाद पार्टी यानी नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी (NCP) और इसका चुनाव चिन्ह दीवार घड़ी भी उनके खाते में चली गई. आज शरद पवार के पास न तो उनकी पार्टी है न चुनाव चिन्ह. लोकसभा चुनाव सिर पर हैं. जाहिर तौर पर शरद पवार को एक नई पार्टी और चिन्ह के साथ चुनाव में उतरना होगा.
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ये कोई पहला मौका नहीं है जब शरद पवार के सामने ऐसी चुनौती खड़ी हुई है. आज से 25 साल पहले ऐसा वक्त आया था, जब शरद पवार नई पार्टी और नए सिंबल के साथ चुनावी मैदान में थे. बड़ी इंट्रेस्टिंग बात यह है कि तब जनता ने उन्हें सिर-माथे पर बिठाया था. सवाल यही है कि क्या सियासत में अब पर्याप्त बुजुर्ग हो चुका राजनेता उम्र के इस पड़ाव पर भतीजे से मिली शुरुआती मात के बावजूद आखिर में लड़ाई जीत मुस्कुराता नजर आएगा?
आपको 25 साल पुराना वाला सियासी किस्सा भी बताएंगे, लेकिन उससे पहले आइए News Tak की इस खास रिपोर्ट में नजर डालते हैं शरद पवार की सियासी यात्रा पर.
जब हम शरद पवार के जीवन के बारे में किस्से जुटा रहे थे, तो हमारे सामने हमारे सहयोगी इंडिया टुडे मैग्जीन में 30 नवंबर 1991 में पब्लिश एक आर्टिकल खुला. यानी आज से करीब 33 साल पुरानी कहानी. ये कहानी थी शरद पवार और उनके घड़ बारामती की. कहानी ये कि एक तरफ सियासत में शरद पवार का कद बढ़ रहा था और दूसरी तरफ बारामती में विकास की बयार. पवार फैमिली के रसूख और बारामती की चमक, दोनों दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से बढ़ रही थी. इसी लेख में दो खास बातें लिखी हैं, जिन्हें आज से जोड़ दिया जाए तो सियासत का कठोर चेहरा सामने दिखता है. तब के इस लेख में उन दिनों रक्षा मंत्री शरद पवार को भावी प्रधानमंत्री माना जा रहा था. इस लेख में एक लाइन और थी. वह लाइन थी अजित पवार के बारे में. तब शरद पवार के भतीजे अजित 32 साल के थे और अपने चाचा के केंद्र की सियासत में जाने के बाद बारामती से लोकसभा सांसद बन चुके थे. लेख में उन्हें शरद पवार के साम्राज्य का नैसर्गिक उत्तराधिकारी माना जा रहा था.
आज शरद पवार विपक्ष के सबसे वरिष्ठ चेहरों में से एक हैं. प्रधानमंत्री बनने की संभावनाएं अभी भी शेष हैं. अजित पवार उनके ‘चाहे-अनचाहे’ सियासी उत्तराधिकारी की कुर्सी पा चुके हैं, पार्टी उनकी हो चुकी है. तो ये कहानी अभी शुरू हुई है इसलिए इसको शुरुआत से समझते हैं.
11 भाई-बहनों के बीच सियासत में चमका ये सितारा
शरद पवार, गोविंदराव पवार और शारदाबाई पवार के सात बेटे और चार बेटियों यानी कुल ग्यारह बच्चों में से छठे नंबर के हैं. उनके पिता गोविंदराव पवार एक सहकारी सोसायटी के सेक्रेटरी थे फिर बाद में वे बारामती सहकारी बेंक के व्यवस्थापक भी नियुक्त हुए. माता शारदाबाई पवार पुणे जिला लोकल शिक्षा बोर्ड समिती की प्रमुख रहीं. माता और पिता दोनों पढ़े-लिखे थे सो उनके सभी बच्चे भी पढ़ाई-लिखाई में अव्वल थे. सभी ने विभिन्न विषयों कानून, इंजीनियरिंग , वास्तुकला, धातु विज्ञान और कृषि विज्ञान में ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल की हुई थी. पर इनमें से दो लड़कों, वसंत पवार और शरद पवार की सियासी महत्वाकांक्षाएं अपनी मां शारदाबाई से कुछ ज्यादा ही हासिल हुई थीं.
शरद पवार के सबसे बड़े भी वसंत पवार पेशे से एक वकील थे जो पीजेंट्स एंड वर्कर्स पार्टी में एक प्रमुख व्यक्ति थे. उनकी सियासत लंबी चलती इससे पहले ही एक भूमि विवाद में उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई. अब छठे बेटे शरद पर जिम्मेदारी थी कि वह सियासत में माहिर अपनी मां की महत्वाकांक्षाओं को नया आकार दें, उस मां की महत्वकांक्षाएं जो नवजात शरद को लेकर पहुंच गई थी सियासी बैठक करने. लंबे कद-काठी के युवा और मिलनसार शरद पवार पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज से बी.कॉम की पढ़ाई कर रहे थे. वहीं वो यूथ कांग्रेस में शामिल हो गए. कॉलेज की सियासत से ही उनकी मुलाकात वाईबी चव्हाण से हुई, जिन्हें पवार अपना राजनैतिक गुरु मानते हैं. वाईबी चव्हाण ने ही पवार के राजनीतिक करियर को आकार दिया.
बारामती से शुरू किया सियासी सफर
1967 में राज्य विधानसभा चुनाव में पहली बार शरद पवार बारामती से विधायक चुने गए. उसके बाद क्या था वो प्रदेश की सियासत में छा गए. वो प्रदेश सरकार में जल्द ही मंत्री बन गए. 18 जुलाई 1978 में वे प्रगतिशील डेमोक्रेटिक फ्रंट की तरफ से पहली बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. वे करीब डेढ़ साल तक सीएम रहे. इसके बाद वो अलग-अलग समय में कुल चार मर्तबा प्रदेश के सीएम बने. कहते हैं कि राजीव गांधी के समय में उन्हें सत्ता से बेदखल करने की कई कोशिशें हुईं तब भी वो महाराष्ट्र के प्रमुख नेता और बारामती के किंग माने जाते रहे.
1991 के आम चुनाव में दिखाया दम
राज्य सियासत में अपनी धाक जमाने के बाद उन्होंने देश की सियासत में कदम रखा. शरद पवार बारामती लोकसभा सीट से सांसद भी रहे. साल 1991 के चुनाव में शरद पवार ने महाराष्ट्र में कांग्रेस के प्रचार की जिम्मेदारी अपने जिम्मे ली और प्रदेश की 48 सीटों में से 38 पर जीत दर्ज कराई. उस समय शरद पवार का सियासी कद इतना बड़ा हो चुका था कि प्रधानमंत्री के पद के लिए नरसिम्हा राव, अर्जुन सिंह और शरद पवार का नाम अखबारों में लिखा जा रहा था. हालांकि संसदीय दल ने नरसिम्हा राव को प्रधानमंत्री पद के लिए चुना.
1999 में सोनिया गांधी के विरोध के नाम पर छोड़ी कांग्रेस
साल 1999 में शरद पवार ने पीए संगमा और तारिक अनवर के साथ कांग्रेस पार्टी में सोनिया गांधी का ही विरोध कर दिया. इनका ऐतराज सोनिया गांधी के विदेश मूल को लेकर था. इनकी मांग थी कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष और प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर इटली में जन्मी विदेशी मूल की सोनिया गांधी के बजाय किसी और सदस्य को सामने लाया जाए. पवार गुट की इस मांग पर पार्टी ने उन्हें दल से निष्कासित कर दिया.
अब कहानी उस चुनाव की भी जान लीजिए जब शरद पवार के सामने थे आज जैसे ही हालात
साल 1999 में कांग्रेस से अलग होकर शरद पवार ने पी ए संगमा और तारिक अनवर के साथ मिलकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी(NCP) की स्थापना की. 1999 के आम चुनाव में जब शरद पवार 59 साल के थे तब वो अपनी नई पार्टी NCP से चुनावी मैदान में थे. इस चुनाव में जनता ने उन्हें खूब प्यार दिया. हालांकि उन्हें केवल 6 ही सीटें ही मिली लेकिन उन्होंने कांग्रेस को गहरा आघात पहुंचाया. पिछले लोकसभा चुनाव में 33 सीटों पर रही कांग्रेस अब 10 सीटों पर आ गई.तब उन्होंने कांग्रेस को अपनी सियासी ताकत का एहसास कराया था.
क्या फिर से शरद पवार दिखा पाएंगे अपना दम?
अब एकबार फिर से शरद पवार के सामने 1999 वाली ही स्थिति खड़ी हो गई. उनके ही भतीजे अजीत पवार के खेल ने उन्हीं की पार्टी से हाथ धोना पड़ा है. लोकसभा चुनाव में अब लगभग 100 से कम दिन ही शेष बचे है हालांकि पवार अब 83 साल के हो चुके हैऔर उनके पास न अपनी पार्टी है न सिंबल. अब ये देखना दिलचस्प होगा कि कैसे बारामती का यह जख्मी शेर एकबार फिर से 1999 वाली अपनी सियासत को दुहरा पाता है या भतीजे के खेल में उलझकर अपने राजनैतिक अवसान की तरफ चला जाएगा.
ताजा जानकारी के मुताबिक, चुनाव आयोग ने चुनाव हाल ही में होने वाले राज्यसभा चुनाव को देखते हुए शरद पवार को ‘राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी – शरदचंद्र पवार’ के नाम से नई पार्टी दे दिया है.
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