MP Election 2023: मध्य प्रदेश की राजनीति में कांग्रेस अपने दो सबसे महत्वपूर्ण चेहरे कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के सहारे चुनावी नैया पार करने की कोशिश में जुटी हुई है. दोनों नेताओं की उम्र 70 पार है और दोनों की एनर्जी देखने लायक है. भले ही बीजेपी के नेता नरोत्तम मिश्रा, कैलाश विजयवर्गीय और कमल पटेल उन पर उम्र को लेकर बार-बार तंज कसते रहे हों, लेकिन दोनों नेता इसकी परवाह किए बिना अपने काम में पूरी तरह से मशगूल नजर आते हैं.
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मध्यप्रदेश में साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं और कांग्रेस की सारी उम्मीदें इन्हीं दो 70 पार के युवा बुजुर्गों पर टिकी हुई हैं. हाल में नरोत्तम मिश्रा ने फिर से कमलनाथ पर तंज करते हुए कहा कि उन पर उम्र हावी हो रही है. ऐसे ही कुछ दिनों पहले भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय दिग्विजय सिंह को बुढऊ तक कह डाला था, जिसका जवाब देते हुए दिग्विजय सिंह ने कहा था कि कैलाश विजयवर्गीय मैदान पर आ जाएं पता लग जाएगा कि कौन बुढऊ है. गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा ने मंगलवार को फिर से कमलनाथ अब बुजुर्ग बता दिया, उन्होंने कहा- ‘वे अभी तक आटा चक्की में ही फंसे हैं, जबकि अब मिक्सर का जमाना है.’
कृषि मंत्री कमल पटेल ने भी कुछ दिन पहले बोला था कि कमलनाथ और दिग्विजय सिंह दोनों सठिया गए हैं, लेकिन क्या सच में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह कांग्रेस के लिए वे बोझ बन चुके हैं या फिर कांग्रेस की सबसे बड़ी उम्मीद हैं. पढ़िए MP Tak की खास पड़ताल…
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक जगमोहन द्विवेदी बताते हैं कि दिग्विजय सिंह और कमलनाथ की दम पर ही कांग्रेस बीजेपी को कड़ी टक्कर दे पा रही है. ग्वालियर-चंबल संभाग में बीजेपी ने 2018 में कमजोर प्रदर्शन किया था और उसे देखने के बाद सबसे पहले दिग्विजय सिंह को ग्वालियर-चंबल संभाग में रणनीति बनाने की जिम्मेदारी दी गई. यादवेंद्र सिंह यादव, बैजनाथ यादव ये सभी सिंधिया समर्थक थे, लेकिन उनको कांग्रेस में शामिल करा लिया. इसी तरह पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी के बेटे पूर्व मंत्री दीपक जोशी को कमलनाथ ने बीजेपी से तोड़कर कांग्रेस में शामिल करा दिया. ये सभी इन दोनों की जुगलबंदी का ही परिणाम है. ऐसे में इनको बुजुर्ग नेता कहकर कोई भी इनकी काबिलियत को खारिज नहीं कर सकता.
वरिष्ठ पत्रकार धनंजय सिंह बताते हैं कि दिग्विजय सिंह ने न सिर्फ ग्वालियर-चंबल बल्कि निमाड़, मालवा और कमलनाथ ने महाकौशल के जिलों के दौरे कर रणनीति तैयार की. टिकट वितरण भी ज्यादातर इन दोनों के हाथों में ही रहेगा. सबसे अहम हाईकमान यानी सोनिया और राहुल गांधी का भरोसा अभी भी कमलनाथ और दिग्विजय पर कायम है.
वरिष्ठ पत्रकार देवश्री माली बताते हैं कि आप 6 साल पीछे जाएं और कांग्रेस को देखें. कांग्रेस तब गुटों में बंटकर पूरी तरह से खत्म हो चुकी थी. मप्र की राजनीति से लगभग गायब थी. लेकिन फिर 2018 में कमलनाथ मप्र में आते हैं और उसके बाद से ही कांग्रेस पार्टी एक बार फिर से मप्र की राजनीति में न सिर्फ खड़ी हुई बल्कि 2023 के विधानसभा चुनाव को लेकर काफी मजबूत नजर आ रही है. रही बात उम्र की तो 70 पार तो देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी हो चुके हैं. बीजेपी के नेता इस समय खुद कांग्रेस वाली बीमारी यानी गुटबाजी से जूझ रहे हैं. पार्टी अपने अंदर की बीमारी छिपाने के लिए कमलनाथ और दिग्विजय सिंह को बूढ़ा दिखाने की कोशिश कर रही हैं.
कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के बीच गुटबाजी की भी आती हैं खबरें
एक तरफ कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के बीच जुगलबंदी नजर आती है तो कई बार ऐसी भी खबरें सामने आई हैं, जिसमें कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के बीच अलग-अलग गुट होने की बातें कही गई हैं. लेकिन दोनों ने इसे लेकर कभी भी कोई मतभेद सार्वजनिक रूप से सामने नहीं आने दिए. सार्वजनिक रूप से दोनों ने पूरी कांग्रेस और मध्यप्रदेश के सामने इस संदेश को देने में सफल रहे कि पूरी कांग्रेस इस समय एकजुट है.
सिंधिया गुट के बीजेपी में जाने का भी मिला फायदा
दिग्विजय सिंह और सिंधिया परिवार के बीच राजनीतिक रस्साकशी स्व. माधवराव सिंधिया के समय से ही रही है. दिग्विजय सिंह पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के शिष्य माने जाते रहे हैं और राजनीतिक हलकों में चर्चा रही है कि इन दोनों ही वजह से ही स्व. माधवराव सिंधिया कभी मप्र के मुख्यमंत्री नहीं बन सके. कुछ ऐसा ही टकराव दिग्विजय सिंह का ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ भी रहा.
2018 में सिंधिया के अथक प्रयास के बाद कांग्रेस ने मप्र में सरकार बना तो ली लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया मुख्यमंत्री नहीं बन सके. जिसके बाद सिंधिया ने सरकार गिरा दी थी और वे बीजेपी में शामिल हो गए थे. राजनीति के जानकार बताते हैं कि कमलनाथ ने पूरी जिंदगी केंद्र की राजनीति की और वे सिर्फ 2017 से मप्र की राजनीति में सक्रिय हुए. ऐसे में वे शुरू से ही दिग्विजय सिंह पर अधिक निर्भर रहे हैं. जाहिर है कि दोनों भले ही 75 साल से अधिक आयु वर्ग में पहुंच चुके हैं लेकिन राजनीतिक जुगलबंदी के चलते ही मप्र की राजनीति में कांग्रेस एक बार फिर न सिर्फ जीवित हुई है बल्कि अब वह बीजेपी को बराबरी की टक्कर देने की हैसियत में आ गई है.
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