Vijay Factor: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) और भारतीय जनता पार्टी (BJP) के बीच के दशकों पुराने रिश्तों में अब एक बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा है. राजस्थान पत्रिका अखबार की एक रिपोर्ट के मुताबिक, संघ ने बीजेपी को लेकर दो बड़े फैसले लिए हैं, जिससे राजनीतिक गलियारों में हलचल मच गई है. सवाल उठ रहे हैं कि क्या संघ और बीजेपी के 'पिता-पुत्र' वाले रिश्ते में अब दरार आ गई है?
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प्रचारकों की वापसी और बीजेपी का नया रास्ता
संघ ने साफ कर दिया है कि अब वह अपने प्रचारकों को बीजेपी के संगठनात्मक काम के लिए नहीं भेजेगा. यह परंपरा भारतीय जनसंघ के समय से चली आ रही थी, जहां संघ के प्रचारक बीजेपी की राज्य इकाइयों से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक संगठन मंत्री के तौर पर काम करते थे. फिलहाल, बीएल संतोष जैसे कई प्रचारक बीजेपी के राष्ट्रीय संगठन महामंत्री के पद पर हैं.
संघ के इस फैसले का मतलब है कि बीजेपी को अब अपने संगठन मंत्री पार्टी के भीतर से ही खोजने होंगे. जो प्रचारक अभी अलग-अलग राज्यों में काम कर रहे हैं, वे अपना कार्यकाल पूरा होने के बाद संघ में वापस लौट आएंगे. अपवाद स्वरूप ही किसी नए राज्य में कोई प्रचारक भेजा जा सकता है. केंद्र में भी अब राष्ट्रीय संगठन महामंत्री का पद संघ के प्रचारक के पास नहीं होगा.
संवाद का पुल टूटेगा?
ये संगठन मंत्री संघ और बीजेपी के बीच एक संवाद पुल का काम करते थे. वे दोनों के बीच फीडबैक पहुंचाते थे और जमीनी स्तर पर पार्टी को मजबूत करने में अहम भूमिका निभाते थे. संघ के इस फैसले से यह महत्वपूर्ण पुल कमजोर हो सकता है.
क्यों बदला संघ का रुख?
सवाल यह उठता है कि संघ ने इतना बड़ा और कड़ा फैसला क्यों लिया? इसके पीछे कुछ बड़ी वजहें बताई जा रही हैं:
प्रचारकों की कमी: संघ में प्रचारकों की संख्या में कमी आई है. संघ को लगता है कि उसे अपने 100 साल पूरे होने से पहले सामाजिक क्षेत्र में ज्यादा काम करने की जरूरत है, और ऐसे में प्रचारकों को बीजेपी को 'उधार' पर देने की बजाय अपने पास रखना उचित है.
राजनीतिक उलझाव: संघ ने महसूस किया है कि पिछले 10-11 सालों से बीजेपी में भेजे गए प्रचारक राजनीतिक दांव-पेंचों में फंस जाते हैं और संगठनात्मक कार्यों पर ध्यान नहीं दे पाते.
बाहरी नेताओं की एंट्री: बीजेपी में हाल के वर्षों में बाहरी नेताओं की भारी संख्या में एंट्री हुई है, जिनकी विचारधारा कई बार संघ की विचारधारा से मेल नहीं खाती. इससे बीजेपी के मूल कार्यकर्ताओं में नाराजगी पैदा हो रही है. संघ को लगता है कि इससे बीजेपी की मूल भावना को ठेस पहुंच रही है.
बीजेपी की अनदेखी: खबरें ये भी हैं कि बीजेपी आलाकमान और मोदी सरकार ने संघ की कुछ बातों को मानने से इनकार कर दिया है. अगर बीजेपी संघ की बातें नहीं मान रही, तो संघ को लगता है कि उसके प्रचारकों को भेजने या हर काम में दखल देने का कोई औचित्य नहीं है.
संघ बचाना चाहता है अपनी पहचान
संघ को लगता है कि बीजेपी के हर काम में सीधा दखल देने की बजाय, अगर वह थोड़ा किनारा कर ले तो शायद बाहर रहकर बीजेपी को बचाने में कामयाब होगा. संघ का मानना है कि मोदी जी की राजनीतिक मोर्चे पर तो पकड़ मजबूत है, लेकिन सामाजिक मोर्चे पर उतनी नहीं है. संघ अपनी पकड़ सामाजिक मोर्चे पर बढ़ाना चाहता है, जैसे वनवासी कल्याण आश्रम और दलितों, पिछड़ों को हिंदुत्व के दायरे में लाने का काम.
बीजेपी और संघ: नए समीकरण
माना जा रहा है कि इस फैसले से संघ और बीजेपी दोनों ने अपनी-अपनी सीमाएं तय कर ली हैं. अब वे एक-दूसरे के मामलों में सीधा दखल नहीं देंगे, बल्कि सहयोग पर जोर देंगे. इसका मतलब यह नहीं है कि संघ बीजेपी से कट रहा है, बल्कि वह अपने आप को सहयोग तक सीमित रखेगा. यह एक ऐसा रास्ता निकाला गया है ताकि दोनों संगठन स्वतंत्र होकर काम करें, जिससे दोनों को नुकसान न हो और वे एक दूसरे के लिए जरूरी बने रहें.
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