भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले पर कड़ी आपत्ति जताई है. उन्होंने कहा कि लोकतंत्र में कभी यह कल्पना नहीं की गई थी कि कोई न्यायालय राष्ट्रपति को आदेश दे सके. उनका यह बयान उस फैसले के संदर्भ में आया है जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के पास भेजे गए विधेयकों पर तीन महीने के भीतर निर्णय लिया जाना चाहिए.
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राष्ट्रपति का पद सर्वोच्च: धनखड़
राज्यसभा के इंटर्न से बातचीत करते हुए उपराष्ट्रपति ने साफ कहा कि भारत का राष्ट्रपति संविधान का संरक्षक होता है और उनके फैसलों को निर्देशित करना संवैधानिक मर्यादाओं का उल्लंघन है. उन्होंने कहा कि बाकी सभी लोग संविधान का पालन करने की शपथ लेते हैं, लेकिन राष्ट्रपति इसकी रक्षा करने की शपथ लेते हैं.
धनखड़ ने सवाल उठाते हुए कहा, "क्या हम ऐसा लोकतंत्र चाहते हैं जहां न्यायपालिका कानून बनाने लगे, कार्यपालिका की तरह काम करे और सुपर संसद बन जाए?"
उपराष्ट्रपति ने कहा कि संविधान की व्याख्या केवल अनुच्छेद 145(3) के तहत की जा सकती है और वह भी कम से कम पांच जजों की बेंच द्वारा. उन्होंने अनुच्छेद 142 पर भी सवाल उठाया और कहा कि यह प्रावधान अब न्यायपालिका के लिए 24x7 उपलब्ध परमाणु मिसाइल बन गया है.
उपराष्ट्रपति ने दिल्ली में जस्टिस यशवंत वर्मा के घर नकदी मिलने के मामले को लेकर भी चिंता जताई. उन्होंने कहा कि यह मामला एक हफ्ते तक सामने नहीं आया, जो कानून के शासन पर सवाल खड़ा करता है. उन्होंने पूछा कि क्या तीन जजों की जांच कमेटी किसी कानूनी व्यवस्था के तहत काम कर रही है? और क्या संसद की मंजूरी के बिना ऐसी जांच को संवैधानिक माना जा सकता है?
राष्ट्रपति केवल नाममात्र का मुखिया: कपिल सिब्बल
उपराष्ट्रपति की इस प्रतिक्रिया पर कई दलों ने प्रतिक्रिया दी. देश के जानेमाने वकील और राज्यसभा सांसद कपिल सिब्ब्ल ने एनएनआई से बातचीत करते हुए कहा, "जगदीप धनखड़ का बयान देखकर मुझे दुख और आश्चर्य हुआ. अगर आज के समय में पूरे देश में किसी संस्था पर भरोसा किया जाता है तो वह न्यायपालिका है. जब सरकार के कुछ लोगों को न्यायपालिका के फैसले पसंद नहीं आते तो वे उस पर अपनी सीमा लांघने का आरोप लगाने लगते हैं... क्या उन्हें पता है कि संविधान ने अनुच्छेद 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट को पूर्ण न्याय देने का अधिकार दिया है?... राष्ट्रपति केवल नाममात्र का मुखिया होता है... राष्ट्रपति कैबिनेट के अधिकार और सलाह पर काम करता है. राष्ट्रपति के पास अपना कोई व्यक्तिगत अधिकार नहीं होता. जगदीप धनखड़ को यह बात पता होनी चाहिए..."
राज्यपाल के बारे में उपराष्ट्रपति का क्या कहना है: सुप्रिया श्रीनेत
कांग्रेस नेता सुप्रिया श्रीनेत ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म 'X' पर लिखा, "मैं तो उपराष्ट्रपति के बयान पर टिप्पणी करने में संयम बरतूँगी, काश यह संयम उन्होंने भी सुप्रीम कोर्ट पर बयान देते वक्त दिखाया होता मैं तो यह जानना चाहती हूँ कि जिस तरह से तमिलनाडु के राज्यपाल ने राज्य सरकार के कानूनों को रोककर संविधान की धज्जियां उड़ायीं - उसके बारे में उपराष्ट्रपति का क्या कहना है? क्या वह नहीं देख रहे हैं कि आज राजभवन उन लोगों से भरे पड़े हैं जो बेशर्मी से RSS के एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं और BJP की लाइन पर कार्यकर्ताओं जैसे चल रहे हैं?"
क्या है अनुच्छेद 142
अनुच्छेद 142 भारतीय संविधान का एक ऐसा प्रावधान है, जो सुप्रीम कोर्ट को विशेष शक्तियां देता है. इसके तहत सुप्रीम कोर्ट ऐसा कोई भी आदेश या फैसला दे सकता है, जो पूरी तरह से न्याय (Complete Justice) करने के लिए ज़रूरी हो.
अगर किसी मामले में न्याय देने के लिए संविधान या कानून में कोई सीधी व्यवस्था नहीं हो, तो भी सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 142 के तहत फैसला दे सकता है. यह ताकत सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के पास होती है, किसी और अदालत के पास नहीं.
8 अप्रैल को SC ने क्या कहा था?
8 अप्रैल को 'तमिलनाडु राज्य बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल, 2023' मामले में फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने कहा कि अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा किए गए कार्यों का निर्वहन न्यायिक समीक्षा के अधीन है.
सुप्रीम कोर्ट ने की थी ये अहम टिप्पणी
कोर्ट ने कहा कि राष्ट्रपति को अनिश्चित समय तक इंतजार करवाने का अधिकार नहीं है, यानी वे "पूर्ण वीटो" जैसे व्यवहार नहीं कर सकते. सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि राष्ट्रपति को तीन महीने के अंदर फैसला लेना चाहिए, और अगर किसी कारण से देरी होती है तो उसकी जानकारी राज्य सरकार को देनी होगी.
इसके अलावा, राष्ट्रपति अगर किसी बिल को मंजूरी नहीं देना चाहते, तो उसका ठोस कारण होना चाहिए. ऐसा कोई फैसला मनमाने तरीके से नहीं लिया जा सकता. अगर राष्ट्रपति तय समय में कोई निर्णय नहीं लेते, तो राज्य सरकारें कोर्ट में रिट याचिका दाखिल कर सकती हैं और निर्णय के लिए आदेश (Mandamus) मांग सकती हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर राज्यपाल किसी बिल को असंवैधानिक मानते हुए राष्ट्रपति के पास भेजते हैं, तो राष्ट्रपति को संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से सलाह लेनी चाहिए.
क्या कहता है अनुच्छेद 201
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 201 कहता है कि अगर कोई राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए भेजता है, तो राष्ट्रपति को या तो मंजूरी देनी होगी या फिर इनकार करना होगा.
हाल ही में इस अनुच्छेद का ज़िक्र करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम टिप्पणी की. कोर्ट ने कहा कि संविधान में भले ही राष्ट्रपति के फैसले के लिए कोई स्पष्ट समय-सीमा नहीं दी गई है, लेकिन अगर मंजूरी में बहुत देर होती है, तो इससे राज्य की विधायी प्रक्रिया रुक सकती है. इससे कानून बनाने की प्रक्रिया अनिश्चितकाल के लिए लटक सकती है, जो सही नहीं है.
जारी है गवर्नर बनाम सरकार का टकराव
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला उन राज्यों के लिए अहम माना जा रहा है जहां राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच लगातार टकराव की स्थिति बनी रहती है, जैसे पंजाब, केरल और तमिलनाडु.
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