बिहार में जारी अब छत्तीसगढ़ की बारी, क्या है जातिगत जनगणना का इतिहास

देवराज गौर

ADVERTISEMENT

newstak
social share
google news

क्यों हो रही है जातिगत जनगणना की चर्चा

आज गुरुवार 6 अक्टूबर 2023 को कांकेर, छत्तीसगढ़ में एक जनसभा को संबोधित करते हुए कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने ऐलान किया है कि राज्य में दोबारा सरकार बनने पर कांग्रेस पार्टी जाति आधारित जनगणना कराएगी. यह पहला मौका है जब कांग्रेस ने खुले तौर पर इसकी घोषणा की है.

बिहार में नीतीश कुमार की गठबंधन सरकार पहले ही जातिगत सर्वे के आंकड़े जारी कर चुकी है. जिसके बाद से पूरे देश में जातिगत जनगणना की आवाज फिर से बुलंद होने लगी है. आज हम जानेंगे कि जिस जातिगत जनगणना की मांग उठ रही है उसका आरक्षण से क्या संबंध है. क्या यह हमारे देश में आजादी के समय से ही हो रही है या फिर कुछ और कहानी है, आइए समझते हैंः

जनगणना का क्या रहा है इतिहास

भारत में अंग्रेजी शासनकान से ही हर दस साल में जनगणना होती आ रही है. इसके साथ ही साथ अंग्रेजी सत्ता जातियों की जनगणना भी करवाती थी और आंकड़ें जारी करती थी. 1931 में आखिरी बार जातिगत जनगणना हुई थी. 1941 में भी जाति जनगणना हुई, लेकिन आंकड़ों को प्रकाशित नहीं किया गया. आजादी के बाद जनगणना तो प्रत्येक 10 साल में होती रही, लेकिन आंकड़ों को सीमित कर दिया. 1951 में होने वाली जनगणना के बाद सिर्फ अनुसूचित जातियों और जनजातियों को ही गिना गया. अभी तक की जनगणनाओं में सिर्फ अनुसूचित जाति और जनजातियों के ही आंकड़ें प्रकाशित किए जाते रहे हैं. संविधान लागू होने के साथ ही एससी और एसटी वर्गों के लिए तो आरक्षण लागू हो गया, लेकिन इसमें ओबीसी को शामिल नहीं किया गया.

ADVERTISEMENT

यह भी पढ़ें...

फिर कुछ समय में ही ओबीसी के आरक्षण को लेकर भी मांग उठने लगी. पिछड़े वर्ग की क्या परिभाषा होगी, कैसे इस वर्ग को भी सशक्त बनाया जाए, इसके लिए नेहरू सरकार ने 1953 में काका कालेलकर आयोग का गठन किया. 1931 की जनगणना जाति के आंकड़ों का आधार बनीं. लेकिन आयोग कोई नतीजे तक नहीं पहुंच सका. तबके केंद्रीय गृहमंत्री गोविंद वल्लभ पंत के मुताबिक, जातिगत आरक्षण प्रशासनिक क्षमता से समझौता और पात्र लोगों को दंडित करना था. हालांकि कालेलकर आयोग के सदस्यों में इस बात पर भी सहमति नहीं बन पाई थी कि पिछड़ेपन का आधार जातिगत होना चाहिए या आर्थिक.

ओबीसी और आरक्षण

फिर 1978 में मोरारजी देसाई की जनता पार्टी सरकार में 1978 में बीपी मंडल की अध्यक्षता में एक पिछड़ा वर्ग आयोग बना. दिसंबर 1980 में मंडल आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी, लेकिन तब तक जनता पार्टी की सरकार गिर चुकी थी. कांग्रेस की इंदिरा गांधी सरकार ने मंडल आयोग की सिफारशों पर 9 साल तक कुछ नहीं किया, लेकिन 1990 में वीपी सिंह की सरकार ने मंडल आयोग की एक सिफारिश को लागू किया और वह थी सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्ग को 27 फीसदी आरक्षण देना.

ADVERTISEMENT

मंडल आयोग ने भी 1931 की ही जनगणना के आधार पर पिछड़ी जातियों की पहचान की थी. वहीं मनमोहन सरकार में तत्कालीन केंद्रीय मानव एवं संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह ने 2006 में मंडल की बाकी सिफारिशों को भी लागू कर दिया, जिसमें शैक्षणिक संस्थाओं में भी पिछड़े वर्ग को लेकर आरक्षण लागू कर दिया गया.

ADVERTISEMENT

2010 में आकर जातिगत आधारित जनगणना की मांग फिर से उठने लगी. लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, गोपीनाथ मुंडे, शरद यादव जैसे ओबीसी नेताओं ने जोर-शोर से मांग उठाई. लेकिन तब कांग्रेस भी इसके पक्ष में नहीं थी. आखिर 2011 में गठबंधन में शामिल ओबीसी नेताओं के दबाव में आकर कांग्रेस सरकार ने जातिगत आंकड़े जुटाने का निर्णय लिया जिसे SECC यानि सोशियो इकोनॉमिक कास्ट सेंसस कहा गया. करीब 4800 करोड़ रु खर्च कर आंकड़े जुटाए गए लेकिन जातिवार आंकड़े आजतक प्रकाशित नहीं किए जा सके हैं.

गौरतलब है कि वर्तमान केंद्र सरकार ने 2021 में होने वाली जनगणना को 2024-2025 तक के लिए बढ़ा दिया है.

यह भी पढे़ंः ओबीसी आरक्षण और रोहिणी आयोग, क्यों हो रही है चर्चा

    follow on google news
    follow on whatsapp

    ADVERTISEMENT