हाल ही में गृह मंत्री अमित शाह ने उपराष्ट्रपति चुनाव के लिए विपक्ष के उम्मीदवार और सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज बी. सुदर्शन रेड्डी. पर निशाना साधा है. शाह ने आरोप लगाया कि अगर सुदर्शन रेड्डी ने साल 2011 में सलवा जुडूम को खत्म करने वाला फैसला न दिया होता, तो नक्सलवाद का अंत साल 2020 तक हो चुका होता.
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वहीं इस आरोप के जवाब में रेड्डी ने सवाल उठाया कि शाह इतने सालों तक चुप क्यों थे. उन्होंने कहा-
शाह का ये बयान ऐसे वक्त में आया है जब विपक्ष ने सुदर्शन रेड्डी को उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया है. ऐसे में सवाल ये उठता है कि आखिर ये सलवा जुडूम है क्या, सुप्रीम कोर्ट ने इसे क्यों खत्म किया? और अब इस पर विवाद क्यों हो रहा है? इस रिपोर्ट में विस्तार से जानते हैं
क्या है सलवा जुडूम
सलवा जुडूम गोंडी भाषा है जिसका हिंदी में मतलब होता है “शांति की यात्रा” (गोंडी भाषा में). अब भले की इसके नाम में शांति की बात हो रहा हो लेकिन इसके पीछे की हकीकत शांति से कोसों दूर थी.
दरअसल 2005 में भारत का कई राज्य और 200 से ज़्यादा जिले माओवादी विद्रोह की चपेट में थे. इन राज्यों में छत्तीसगढ़ सबसे ज़्यादा प्रभावित था. यहां भीषण हिंसा देखी गई. आधिकारिक आंकड़ों की मानें तो साल 2005 से साल 2011 के बीच सिर्फ बस्तर में 1019 स्थानीय लोगों, 726 सुरक्षाकर्मी और 422 माओवादी की मौत हुई थी.
नक्सलियों ने जो सुरक्षा चुनौती उत्पन्न की थी उसके जवाब में छत्तीसगढ़ सरकार ने सलवा जुडूम नाम से एक सतर्कता आंदोलन की शुरुआत की. इसके तहत स्थानीय आदिवासी युवाओं को हथियार देकर उन्हें नक्सल विरोधी अभियान में झोंक दिया.
इन्हें नाम दिया गया विशेष पुलिस अधिकारी (SPOs). ये आदिवासी युवक बहुत ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं होते थे और इनकी उम्र भी 18 साल के आस-पास होती थी. इन्हें बहुत कम ट्रेनिंग देकर नक्सलियों से लड़ने के लिए जंगलों में भेजा जाता था. इन्हीं SPOs को सलवा जुडूम के नाम से जाना गया. इन्हें स्थानीय भाषा और इलाके की जानकारी की वजह से चुना जाता था.
अब इन कमांडोज को लेकर सरकार का दावा था कि ये सब स्वेच्छा से भर्ती हुए युवक थे, जो अपने इलाके में नक्सल हिंसा से परेशान थे और उनके खिलाफ खड़े होना चाहते थे. सरकार के अनुसार इन्हें 3000 रुपये प्रति महीना दिया जाता था और बदले में ये पुलिस की मदद करते थे, जैसे- पुलिस को उस क्षेत्र का रास्ता दिखाना, नक्सलियों की जानकारी देना, अनुवाद करना और जरूरत पड़ने पर मुकाबला भी करना.
इस पूरी योजना को छत्तीसगढ़ पुलिस एक्ट, 2007 के तहत लागू किया गया था. इस नए कानून के तहत SPOs की नियुक्ति जिला के पुलिस अधीक्षक के हाथ में थी. वो भी बिना किसी मजिस्ट्रेट की मंजूरी के.
सुप्रीम कोर्ट के सामने क्यों आया मामला?
इसी साल यानी 2007 में, समाजशास्त्री नंदिनी सुंदर, इतिहासकार रामचंद्र गुहा और पूर्व आईएएस अधिकारी ईएएस सरमा ने सुप्रीम कोर्ट में सलवा जुडूम प्रथा को चुनौती दते हुए याचिका दायर की. इन्होंने आरोप लगाया कि इस तरह की प्रथा असंवैधानिक है, यह मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है और मानवाधिकार हनन को बढ़ावा देता है.
SC का कहना था
- कम उम्र और कम पढ़ाई वाले युवाओं को बिना पूरी ट्रेनिंग के लड़ाई में झोंका जा रहा है.
- जिससे इन युवाओं के जान जाने का खतरा बढ़ सकता है, लेकिन बावजूद इसके उन्हें कोई पक्का रोजगार या भविष्य की गारंटी नहीं दी गई है.
- ये "आदिवासी बनाम आदिवासी" की लड़ाई बनती जा रही है, जिसमें समुदाय बंट रहा है.
- कई मामलों में SPOs द्वारा आम नागरिकों के खिलाफ हिंसा, जबरन विस्थापन और उत्पीड़न की शिकायतें आईं.
सुप्रीम कोर्ट में क्या हुआ?
उस वक्त इस मामले की सुनवाई जस्टिस बी. सुदर्शन रेड्डी और जस्टिस एस.एस. निज्जर की पीठ कर रही थी. सुनवाई के दौरान कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार और बीजेपी के रमन सिंह के नेतृत्व वाली राज्य सरकार, दोनों ने इस नीति का बचाव किया था.
सरकार (केंद्र और राज्य) ने अपने पक्ष में तर्क दिए
- ये युवक खुद आगे आकर भर्ती हुए थे.
- उन्हें ट्रेनिंग के दौरान हथियार चलाने, कानून समझाना, मानवाधिकार की जानकारी दी जाती थी.
- ये SPOs नक्सलियों के खिलाफ काफी मददगार** साबित हो रहे थे, इन्होंने कई हमले रोके और राहत शिविरों की रक्षा की.
हालांकि सरकार के तर्क के अलावा याचिकाकर्ताओं और कोर्ट के सामने जो सबूत पेश किए गए थे आए, वो कहीं ज्यादा गंभीर थे.
कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला
दोनों पक्ष का तर्क सुनने और उसकी जांच के बाद साल 2011 के जुलाई महीने में सुप्रीम कोर्ट ने सलवा जुडूम को असंवैधानिक करार दिया और सरकार की इस नीति की सख्त आलोचना की.
उस वक्त कोर्ट ने कहा था कि सरकार आदिवासी युवाओं को नक्सलियों से लड़ने के लिए "लड़ाई का औजार" बना रही है, जो कि बिल्कुल गलत है. कोर्ट ने अपने वर्डिक्ट में कहा कि जिन युवकों को हथियार थमाया जा रहा है वो न तो ठीक से पढ़े-लिखे थे और ना ही उन्हें पूरी ट्रेनिंग दी गई थी, फिर भी उन्हें हथियार थमाकर खतरनाक ऑपरेशनों में भेजा जा रहा था. कोर्ट ने इसे उनकी मानव गरिमा का अपमान बताया.
सुप्रीम कोर्ट ने ये भी साफ कर दिया कि ये नीति संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन है. यानी, इन युवाओं के साथ बराबरी का व्यवहार नहीं हो रहा था और उनकी जीवन की सुरक्षा भी खतरे में थी. कोर्ट के अनुसार उन्हें पुलिस वाली जिम्मेदारियां तो दी जा रही थीं, लेकिन उसके हिसाब से ना उनके पास उतनी ट्रेनिंग थी, ना वेतन और ना ही भविष्य की कोई सुरक्षा.
कोर्ट ने सरकार के इस दावे को भी खारिज कर दिया कि यह "रोजगार" देने की नीति है. कोर्ट ने कहा कि केवल 3000 रुपये महीने देकर किसी की जान को खतरे में डालना रोजगार नहीं हो सकता. यह तो सीधा-सीधा उनका शोषण है.
इतना ही नहीं कोर्ट ने सुनवाई के दौरान राज्य सरकार की सोच पर भी सवाल उठाया और कहा कि सरकार खुद की जिम्मेदारी निभाने के बजाय आम नागरिकों को नक्सलियों से लड़ने भेज रही है जो कि संविधान के खिलाफ है.
अंत कोर्ट ने आदेश दिया कि SPO की जो तैनाती हो रही है उसे तुरंत बंद की जाए, सलवा जुडूम को पूरी तरह खत्म किया जाए और सिर्फ ट्रेन्ड पुलिस या अर्धसैनिक बल को ही नक्सल ऑपरेशन में लगाए जाए.
अब अमित शाह ने क्यों उठाए सवाल?
साल 2025 में जब उपराष्ट्रपति चुनाव का माहौल बना तो विपक्ष की तरफ से जस्टिस सुदर्शन रेड्डी को उम्मीदवार बनाया गया. इसके जवाब में गृह मंत्री अमित शाह ने सुदर्शन रेड्डी पर निशाना साधा. शाह ने कहा कि अगर विपक्ष के उपराष्ट्रपि उम्मीदवार ने सलवा जुडूम को बंद नहीं किया होता, तो नक्सलवाद साल 2020 तक खत्म हो गया होता.
अमित शाह के इस बयान को लेकर कई पूर्व जज और कानूनी विशेषज्ञों ने आपत्ति जताई है. इलाहाबाद हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस जज गोविंद माथुर ने कहा, “किसी भी फैसले की आलोचना हो सकती है, लेकिन किसी जज की नीयत पर सवाल उठाना गलत और आपत्तिजनक है. जज संविधान के हिसाब से फैसला देते हैं, न कि अपनी व्यक्तिगत सोच से.”
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