बिहार की राजनीति एक बार फिर गरमाने लगी है. राज्य में इस साल के अंत तक होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर तमाम सियासी पार्टियां मैदान में उतर चुकी हैं. हालांकि बड़ा सवाल यह है कि इस बार किसका पलड़ा भारी है? एनडीए या महागठबंधन?
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इस सवाल का जवाब तलाशते हुए इंडिया टुडे ग्रुप के Tak चैनल्स के मैनेजिंग एडिटर मिलिंद खांडेकर ने अपने कार्यक्रम साप्ताहिक सभा वरिष्ठ पत्रकार सतीश के. सिंह से बात की. सिंह ने कई अहम बातें बाताई जो इस सवाल का जवाब खोजने में मदद करती हैं.
एनडीए को नुकसान पहुंचा सकता है SIR
इस चुनाव की सबसे बड़ी चर्चा है स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) यानी मतदाता सूची की गहन समीक्षा. चुनाव आयोग का मानना है कि बिहार में फर्जी वोटर हो सकते हैं, खासकर बॉर्डर इलाकों में. यही कारण है कि 25 दिन की मुहिम चलाई जा रही है. लेकिन सवाल उठ रहे हैं कि इतनी हड़बड़ी क्यों? और वो भी चुनाव से ठीक पहले?
महागठबंधन का आरोप है कि इससे उनके वोटर यानी गरीब, पिछड़े और अल्पसंख्यक ज्यादा प्रभावित होंगे, क्योंकि उनके पास जरूरी दस्तावेज नहीं होते. सतीश सिंह का कहना है कि यह मुद्दा गांव-गांव में चर्चा का विषय बन गया है और यह राजनीतिक रूप से एनडीए को नुकसान पहुंचा सकता है.
लॉ एंड ऑर्डर पर सवाल
बिहार में हाल के दिनों में दिनदहाड़े हत्याओं की कई घटनाएं हुईं, जिससे कानून व्यवस्था पर सवाल उठे हैं. इस हत्याओं औक राज्य में बढ़ रही क्राइम पर आरजेडी ने सवाल किया है कि “क्या जंगल राज लौट आया है?”
वरिष्ठ पत्रकार सतीश सिंह साफ कहते हैं कि इससे एनडीए का वो नैरेटिव जो हर चुनाव में चलता था "आरजेडी आएगी तो जंगल राज लौटेगा" अब खुद ध्वस्त होता दिख रहा है, क्योंकि अभी शासन में एनडीए है और अपराध बेलगाम हैं. यह मुद्दा भी एनडीए को रक्षात्मक मोड में डाल रहा है.
प्रशांत किशोर का किसे फायदा?
चुनाव में एक और दिलचस्प चेहरा है, प्रशांत किशोर. वो अपने जनसुराज अभियान के जरिए गांव-गांव तक पहुंचे हैं. सतीश सिंह का कहना है कि अगर प्रशांत किशोर कुछ वोट काटते हैं, तो वो एनडीए के ही वोट होंगे और इसका अप्रत्यक्ष फायदा तेजस्वी यादव को मिलेगा.
सतीश सिंह के अनुसार, महागठबंधन करीब 33% वोट से शुरुआत करता है यादव और मुस्लिम समुदाय के आधार पर. इसके अलावा, कांग्रेस के परंपरागत वोट, कुछ दलित और अति पिछड़ा वर्ग के वोट भी उन्हें मिल सकते हैं. मतलब बेस वोट बैंक महागठबंधन के पास मजबूत है.
नीतीश कुमार की भूमिका पर भी सवाल
नीतीश कुमार की भूमिका पर भी सवाल उठने लगे हैं. एनडीए के भीतर ही अब उनके नेतृत्व को लेकर मतभेद सामने आने लगे हैं. चिराग पासवान और जीतन राम मांझी जैसे नेता जो पहले खुलकर समर्थन करते थे, अब नीतीश कुमार के नाम पर या तो चुप हैं या बात को टालते नजर आते हैं. यहां तक कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने भी एक इंटरव्यू में यह कहकर संदेह और गहराया दिया कि "मुख्यमंत्री कौन बनेगा, ये समय बताएगा", हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि चुनाव नीतीश कुमार के नेतृत्व में लड़ा जाएगा.
इस स्थिति ने बड़ा राजनीतिक सवाल खड़ा कर दिया ह, क्या एनडीए नीतीश कुमार को अब सिर्फ मजबूरी में ढो रहा है? वरिष्ठ पत्रकार सतीश कुमार सिंह के मुताबिक यह एनडीए के लिए “कुएं और खाई” वाली स्थिति है. यानी न तो नीतीश को पूरी तरह किनारे किया जा सकता है और न ही उनके नेतृत्व में आगे बढ़ना अब सहज रह गया है. ऐसे में यह दुविधा खुद एनडीए की मजबूती पर असर डाल रही है.
चुनाव में किसका पलड़ा भारी
वरिष्ठ पत्रकार सतीश कहते हैं कि अब तक के राजनीतिक माहौल और घटनाओं को देखते हुए यह साफ नजर आता है कि एनडीए पहले जैसी मजबूत स्थिति में नहीं है. कानून-व्यवस्था पर उठते सवाल, मतदाता सूची में संशोधन को लेकर विवाद और नीतीश कुमार की कमजोर होती पकड़ ने एनडीए को बैकफुट पर ला दिया है. दूसरी तरफ, महागठबंधन, खासकर आरजेडी को फायदा मिलता दिख रहा है.
उन्होंने आगे कहा कि तेजस्वी यादव अब ज्यादा सक्रिय हैं और उनका कोर वोट बैंक उन्हें मजबूती देता है. इसके अलावा, प्रशांत किशोर का उभार एनडीए के लिए एक और सिरदर्द बन सकता है, क्योंकि वह ऐसे वोटरों को प्रभावित कर सकते हैं जो पहले एनडीए के साथ थे. इस पूरे परिदृश्य में*नीतीश कुमार की छवि और पकड़, दोनों कमजोर पड़ी हैं, जिससे एनडीए की स्थिति और डगमगाती दिख रही है.
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