नेपाल में संसद भंग हो चुकी है. अंतरिम सरकार का गठन होना है. फिलहाल नेपाल की कमान सेना के पास है. Gen-Z का आंदोलन भी अब नरम पड़ गया है. नेपाल फिलहाल आर्मी के हाथों में है और अंतरिम सरकार बनाने को लेकर जेन-जी के साथ बैठकें जारी हैं.
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सवाल उठा कि Gen-Z ने ऐसा क्यों किया?
- पहली वजह सामने नेपो किड्स... नेपाल के सत्ताधीशों और बड़े पदों पर काबिज लोगों के बच्चे बिना कड़ी मेहनत के मौज की मलाई काट रहे हैं, वहीं एक बड़ा युवा वर्ग रोजी-रोटी के लिए दिन-रात संघर्ष कर रहा है. नेपो किड्स और आम युवाओं के बीच का सबसे बड़ा फर्क 'पैदायशी' है.
- दूसरी सबसे बड़ी वजह- भ्रष्टाचार... नेपाल के जेन जी समेत आम लोगों का आरोप है कि यहां की सरकार भ्रष्टाचार में डूबी हुई है.
- तीसरी वजह सोशल मीडिया बैन...इसने आग में घी डालने का काम किया. युवाओं में बढ़ रहे असंतोष को और हवा दे दी. वे सड़कों पर उतर गए.
जातीय एंगल वाली चर्चा जोर क्यों पकड़ रही?
अचानक नेपाल और पड़ोसी देश भारत में जेन-जी आंदोलन के पीछे जातीय एंगल निकाल लिया गया. दावा किया जाने लगा कि जाति व्यवस्था और बड़ी जातियों के सत्ता पर काबिज होने से अन्य प्रतिनिधित्व नहीं हो पा रहा है. आरक्षण के बावजूद अन्य जाति के युवाओं के लिए नौकरियां दूर की कौड़ी साबित हो रही हैं.
ब्राह्मण-क्षत्रिय पर निशाना क्यों?
बड़ी जातियों में ब्राह्मण-क्षत्रिय (नेपाल में बहुन-क्षेत्री) पर निशाना साधा जाने लगा है. चर्चा इस बात की है कि जिनके घर-दफ्तर जलाए गए वे सभी बहुन और क्षेत्री हैं.
मसलन पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली, राष्ट्रपति रामचंद्र पौडेल, पूर्व प्रधानमंत्री और कम्युनिस्ट पार्टी के सबसे बड़े नेता पुष्प कमल दहल प्रचंड, नेपाल के वित्त मंत्री विष्णु प्रसाद पौडेल जिन्हें घर से निकालकर भीड़ ने दौड़ाकर पीटा, नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष और पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा जिनके घर में तोड़फोड़ की गई और पति-पत्नी को भी पीटा गया, पूर्व प्रधानमंत्री झालानाथ खनाल जिनके घर में आग लगाने की इनकी पत्नी की जिंदा जलकर मौत हो गई.
नेपाल में जातीय समीकरण?
एक रिपोर्ट के मुताबिक नेपाल की कुल जनसंख्या में ब्राह्मण और क्षत्रियों (हिल बहुन + क्षेत्री) की मिलीजुली हिस्सेदारी करीब 28-30% के आसपास है. क्षेत्री 16-17 फीसदी और ब्राह्मण 11-12% के करीब हैं.
सियासत में किसका दबदबा?
रिपोर्ट्स की मानें तो नेपाल की सियासत में ब्राह्मण और राजपूत का हमेशा से दबदबा रहा है. आंदोलनकारियों ने जिन्हें निशाना बनाया ये सभी लोग सत्ता के टॉप लेवल पर कई सालों से हैं. लंबे अरसे बाद पुष्प कमल दहल प्रचंड सत्ता में आए थे तब संसद में दलितों को एंट्री मिली थी. हालांकि शीर्ष नेतृत्व में दबदबा बड़ी जातियों का ही रहा.
प्रशासन में किसका दमखम?
काठमांडू पोस्ट की एक रिपोर्ट के मुताबिक (Public Service Commission) में ब्राह्मण और क्षत्रियों का सरकारी नौकरियों में अनुपात बहुत अधिक है. 2018-19 में लगभग 55% ब्राह्मण और क्षत्रियों प्रशासन में थे.
इंडियन एक्सप्रेस की साल 2023 की एक रिपोर्ट के मुताबिक नेपाल सुप्रीम कोर्ट में कोई दलित जज नहीं बन सका है. सरकारी सेवाएं दलितों के लिए अनुकूल नहीं हैं. आरक्षण के बावजूद, सिविल सेवाओं में 0.7% से भी कम दलित महत्वपूर्ण पदों पर हैं, जबकि ब्राह्मण, जिनकी आबादी 12.7% है वे 70% पदों पर काबिज हैं.
इन सब बातों के बावजूद इस बात का दावा करना कठिन है कि जेन जी का आंदोलन जातीय आधारित था. इस जेनरेशन में सभी जाति के युवा हैं और उनका मकसद जातीय व्यवस्था से इतर एक ऐसी सरकार बनाना है जो उनके लिए रोजगार दे सके. उनके रहन-सहन, शिक्षा और कॅरियर के क्षेत्र में बेहतर काम कर सके. हां ये जरूर माना जा सकता है कि तमाम मुद्दों में से ये भी एक मुद्दा रहा हो. चूंकि भारत के किसी पड़ोसी देश में सियासी उठापटक वाले ऐसे हालात पैदा होना कोई नई बात नहीं है. बांग्लादेश, श्रीलंका जैसे देश जहां ऐसे हालात देखे गए हैं वहां करप्शन और आंतरिक मुद्दा हावी रहे हैं.
दूसरी बात...यदि आंदोलन की मुख्य वजह ब्राह्मणों और अगड़ी जातियों को सत्ता से दूर रखना है तो बहुन जाति की सुशीला कार्की का नाम अंतरिम सरकार के लिए प्रस्तावितत करना विरोधाभाषी होगा. ताजा अपडेट के मुताबिक मधेसी जाति से संबंध रखने वाले बालेन शाह अंतरिम सरकार का मुख्य चेहरा बनने से पीछे हट चुके हैं. 'मगर' जाति से आने वाले कुलमान घीसिंग भी कहीं न कहीं प्रधानमंत्री बनने से पीछे हट रहे हैं. देखना ये होगा कि अंतरिम सरकार के चेहरे कौन होते हैं और नई सरकार के गठन में किसकी भूमिका होती है. नेपाल की राजनीति जाति से ऊपर उठकर आगे बढ़ती है या कोई और रोचक फैसले होते हैं.
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