बिहार चुनाव में करोड़ों लोग नहीं डाल पाएंगे वोट, चुनाव आयोग के नए नियम से क्यों मचा है बवाल?

बिहार में चुनाव आयोग ने पूरी मतदाता सूची को रद्द कर नए सिरे से बनाने की प्रक्रिया शुरू की है. इससे करोड़ों लोगों का वोटिंग अधिकार खतरे में पड़ सकता है, खासकर गरीब, मजदूर और महिलाओं के लिए दस्तावेज जुटाना बड़ी चुनौती बन गया है.

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Alka Kumari

03 Jul 2025 (अपडेटेड: 03 Jul 2025, 08:25 PM)

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बिहार में इन दिनों वोटर लिस्ट को लेकर एक नई बहस छिड़ गई है. दरअसल, राज्य में इसी साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. वहीं चुनाव से पहले इलेक्शन कमीशन की तरफ से विशेष मतदाता गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision - SIR) शुरू की गई है. इस प्रक्रिया ने सियासी हलको में खलबली मचा दी है. खासतौर पर विपक्षी दलों को यह प्रक्रिया शक के घेरे में लग रही है. उनके मुताबिक सरकार के इस कदम से समाज के कमजोर वर्गों को वोट देने के अधिकार से वंचित किया जा सकता है.

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विपक्ष का तर्क है कि बिहार की बड़ी आबादी ऐसे लोगों की है जो दस्तावेज़ी रूप से कमजोर हैं, उनके पास आधार कार्ड तक नहीं है, जमीन का कोई कागज नहीं है और शिक्षा का स्तर भी बेहद कम है. ऐसे में अगर केवल दस्तावेजों के आधार पर नई मतदाता सूची तैयार की जाती है तो लाखों लोग बाहर हो सकते हैं. इनमें महादलित, अति पिछड़ा, मुस्लिम और घुमंतू समुदाय सबसे ज्यादा प्रभावित हो सकते हैं. 

इस दौरान बिहार की जनता के बीच भी कई तरह की अफवाहें फैल रही हैं. ऐसे में इस रिपोर्ट में विस्तार से समझते हैं कि बिहार के वोटर लिस्ट में क्या बदलाव हो रहा है और क्यों इसे लेकर विवाद खड़ा हो गया है.

क्या है मामला?

बिहार में चुनाव आयोग ने पुरानी वोटर लिस्ट को पूरी तरह से रद्द कर दिया है. अब सब कुछ नए सिरे से शुरू हो रहा है. यानी हर व्यक्ति को दोबारा फॉर्म भरकर वोटर लिस्ट में नाम दर्ज करवाना होगा. चाहे आपका नाम पहले से सूची में था या नहीं, सभी को यह प्रक्रिया फिर से करनी होगी.

पहले भी होता था ऐसा?

पिछले 22 सालों में ऐसा कभी नहीं हुआ. पहले वोटर लिस्ट में नाम जोड़ने की प्रक्रिया बिल्कुल सामान्य और आसान होती थी, जिसमें थोड़ा-बहुत संशोधन चलता रहता था. लेकिन इस बार ऐसा  पहली बार हो रहा है कि एक पूरी लिस्ट को ही खारिज कर नई सूची बनाई जा रही हो.

तो क्या सभी लोगों को फॉर्म भरना होगा?

हाँ, हर किसी को नए सिरे से फॉर्म भरना होगा. हालांकि 2003 या उसके बाद के लिस्ट में शामिल हुए लोगों को जन्मतिथि और जन्मस्थान का प्रमाण लगाने की जरूरत नहीं है. लेकिन फोटो, हस्ताक्षर और 2003 वाली सूची की फोटोकॉपी लगाना अनिवार्य होगा.


वहीं 2003 के वोटर लिस्ट में जिनका नाम नहीं है उन सभी से नागरिकता के सबूत मांगे जाएंगे और जो कागज मांगे जा रहे हैं, वे आम घरों में मिलना आसान नहीं है. इस दौरान आधार, राशन कार्ड, वोटर ID जैसे सामान्य दस्तावेज मान्य नहीं होंगे.

आधार कार्ड को मान्यता नहीं तो फिर क्या?

चिंता की बात यह है कि SIR में आधार कार्ड को मान्य दस्तावेज़ों में शामिल नहीं किया गया है. इसकी जगह वोटर लिस्ट में नाम डलवाने के लिए आपको पासपोर्ट, जन्म प्रमाणपत्र, सरकारी नौकरी का पहचान पत्र, जाति प्रमाणपत्र या मैट्रिक-डिग्री की मार्कशीट दिखानी होगी. जबकि आधार कार्ड एकमात्र ऐसा दस्तावेज है जो इस राज्य के ज्यादातर गरीब और ग्रामीण लोगों के पास उपलब्ध है.

अब कागज़ों में भले ही सबके लिए नियम समान हों, लेकिन असल में यह प्रक्रिया गरीब, महिला, दलित, आदिवासी और प्रवासी मजदूरों के लिए ज्यादा कठिन साबित होगी. इनके पास जरूरी कागज़ात नहीं होंगेतो उनका नाम सूची से गायब हो सकता है.

कितना समय मिला है?

इस प्रक्रिया को पूरी करने के लिए बिहार की जनता को केवल एक महीने यानी 25 जुलाई तक का समय दिया गया है यानी. इतने कम समय में घर-घर फॉर्म बांटना, भरवाना, दस्तावेज़ इकट्ठा करना और फिर सबकुछ कंप्यूटर में दर्ज करना ये सब किसी सपने जैसा लगता है.

कौन आएगा इसकी चपेट में?

कई जानकारों का मानना है विशेष मतदाता गहन पुनरीक्षण यानी SIR से कुछ विदेशी नागरिकों के नाम भले हट जाए, लेकिन इसके साथ-साथ करोड़ों असली भारतीय नागरिक भी अपने मताधिकार से वंचित हो सकते हैं. 

 5 करोड़ लोगों को दोबारा देना होगा सबूत

जाति जनगणना की पैरवी करने वाले और स्वराज अभियान के सह-संस्थापक योगेंद्र यादव ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर एक रिपोर्ट साझा किया है जिसमें उन्होंने बताया कि बिहार की कुल आबादी करीब 13 करोड़ है. इसमें 8 करोड़ लोग ऐसे हैं जिन्हें वोट डालने का अधिकार है. 2003 की सूची में सिर्फ 3 करोड़ लोगों का नाम था. मतलब बाकी 5 करोड़ लोगों को दोबारा सबूत देने होंगे और इनमें से लगभग आधे लोगों के पास जरूरी दस्तावेज नहीं होंगे.

ऐसे में इस प्रक्रिय से जो लोग पहले से ही हाशिये पर हैं (गरीब, ग्रामीण, महिला, मजदूर, पिछड़े वर्ग) उन्हीं का नाम लिस्ट से हटने का सबसे ज्यादा खतरा है. यानी जिस लोकतंत्र की बुनियाद हर वोट पर टिकी होती है, वहीं वोट अब कई लोगों की पहुंच से बाहर हो सकता है.

सरकार की दलील और विपक्ष का आरोप

सरकार और चुनाव आयोग का कहना है कि ये प्रक्रिया जरूरी है ताकि मतदाता लिस्ट को फ्रेश किया जा सके और अवैध प्रवासियों को सूची से हटाया जा सके. लेकिन विपक्ष का आरोप है कि बांग्लादेशी और रोहिंग्या का नाम लेकर ये प्रक्रिया दरअसल, बिहार की असली गरीब जनता को ही निशाना बना रही है, जिनके पास जन्म प्रमाण पत्र, ज़मीन का कागज, या पढ़ाई का सर्टिफिकेट नहीं होता.

बिहार जैसे राज्य में जहां शिक्षा का औसत स्तर बेहद कम है, जैसे कि ग्रेजुएट सिर्फ 6% और पोस्ट ग्रेजुएट महज़ 0.82% लोग हैं वहां दस्तावेज़ों की मांग करना बड़ी आबादी को लोकतांत्रिक अधिकार से बाहर करने जैसा है.

तेजस्वी यादव का वार 

तेजस्वी यादव ने चुनाव आयोग की मंशा पर सवाल उठाते हुए सवाल किया है कि जिस वोटर लिस्ट से 2024 में लोकसभा चुनाव हुए थे, उसमें एक साल के भीतर संसोधन की क्या जरूरत है.

RJD नेता तेजस्वी यादव कहते हैं, “साल 2024 का लोकसभा चुनाव इसी वोटर लिस्ट के आधार पर हुआ था, जिसमें जनता ने वोट दिया और केंद्र में NDA की सरकार बनी. अब अगर यही सूची गलत थी, तो क्या इसका मतलब यह है कि उस समय नियुक्त सहायक निर्वाचन अधिकारियों ने गलत सूची तैयार की थी? क्या इससे उस सूची के आधार पर बनी सरकार की वैधता पर सवाल नहीं उठता?”

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