बिहार में जातीय जनगणना के ऐलान से बीजेपी की रणनीति होगी सफल या नीतीश और तेजस्वी का दबदबा बढ़ेगा?
Bihar Jati Janganana: जातीय जनगणना पर मोदी सरकार के फैसले ने बिहार की सियासत को गरमा दिया है. अब बड़ा सवाल ये है कि इसका फायदा बीजेपी को मिलेगा या नीतीश-तेजस्वी और कांग्रेस जैसी पार्टियों को बढ़त मिलेगी?
ADVERTISEMENT

Bihar News: केंद्र की मोदी सरकार द्वारा जातीय जनगणना कराने के फैसले ने बिहार की सियासत में नया रंग भर दिया है. इस फैसले को बिहार विधानसभा चुनाव के मद्देनजर लिया गया कदम माना जा रहा है. सवाल यह है कि क्या यह फैसला भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के लिए फायदेमंद साबित होगा, या फिर नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव और कांग्रेस जैसे नेताओं को इसका ज्यादा लाभ मिलेगा, जिन्होंने इस मुद्दे को पहले से उठाया था?
बीजेपी की रणनीति: ओबीसी वोट बैंक पर नजर
बीजेपी को लगता है कि बिहार में 60% से अधिक ओबीसी और अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) इस फैसले से उनके पक्ष में आ सकता है. पार्टी का मानना है कि ओबीसी वोटर पहले भी उसे समर्थन देते रहे हैं. 2015 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को ओबीसी वर्ग से करीब 35% वोट मिले थे, जबकि उस वक्त नीतीश और लालू प्रसाद यादव सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ रहे थे.
बीजेपी ने ओबीसी नेताओं को बढ़ावा देने की रणनीति अपनाई है. सम्राट चौधरी को उपमुख्यमंत्री बनाया गया और हाल के मंत्रिमंडल विस्तार में ओबीसी, महादलित और अति पिछड़ा वर्ग के नेताओं को तरजीह दी गई. पार्टी को लगता है कि जातीय जनगणना के बाद होने वाला पहला विधानसभा चुनाव बिहार में होगा, जिसमें वह इस रणनीति से कामयाबी हासिल कर सकती है.
यह भी पढ़ें...
नीतीश और तेजस्वी का दबदबा
दूसरी ओर, राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इस फैसले का सबसे ज्यादा फायदा नीतीश कुमार को होगा, क्योंकि उन्होंने बिहार में जातीय सर्वे कराने की पहल की थी. तेजस्वी यादव दूसरे और कांग्रेस तीसरे नंबर पर लाभ ले सकती है. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जातीय जनगणना के मुद्दे को संसद से सड़क तक जोर-शोर से उठाया था, जिसका श्रेय उन्हें मिल सकता है.
लालू प्रसाद यादव और राहुल गांधी बीजेपी पर दबाव बना रहे हैं कि 50% आरक्षण की सीमा हटाई जाए, निजी क्षेत्र में आरक्षण लागू हो, और जनगणना का पूरा कार्यक्रम घोषित किया जाए. उनका मानना है कि बिहार की जनता तब तक भरोसा नहीं करेगी, जब तक ये फैसले धरातल पर लागू नहीं होते.
सवर्ण वोटरों की रणनीति
जातीय सर्वे से यह भी सामने आया है कि बिहार में सवर्ण आबादी (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण, कायस्थ) महज 10.6% है. स्थानीय पत्रकारों का कहना है कि सवर्ण वोटर अब यह समझ चुके हैं कि उनका मुख्यमंत्री बनना मुश्किल है.
उनकी रणनीति ज्यादा से ज्यादा सवर्ण उम्मीदवारों को जिताने की है, चाहे वे किसी भी पार्टी से हों. यह रणनीति बीजेपी के लिए नुकसानदेह हो सकती है, क्योंकि सवर्ण वोटर अब पार्टी लाइन से ऊपर उठकर अपने समुदाय के प्रतिनिधियों को चुन सकते हैं.
नीतीश की चुनौती
जातीय सर्वे में यह भी खुलासा हुआ था कि बिहार में 94 लाख परिवारों की मासिक आय 6,000 रुपये से कम है. नीतीश कुमार ने इन परिवारों को तीन किश्तों में 2 लाख रुपये देने की घोषणा की थी, लेकिन अब तक केवल 1 लाख परिवारों को ही यह राशि मिली है.
इसमें भी ज्यादातर को 50,000 या 1 लाख रुपये ही मिले. इस मुद्दे पर प्रशांत किशोर ने नीतीश को घेरा है, जिससे उनकी साख पर सवाल उठ रहे हैं. बीजेपी, जो नीतीश के साथ गठबंधन में है, को भी इसकी सियासी कीमत चुकानी पड़ सकती है.
क्या होगा चुनावी नतीजा?
कुछ विश्लेषकों का मानना है कि बीजेपी की सीटें पिछले चुनाव की 75 से कम हो सकती हैं. तेजस्वी यादव की राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) की सीटें भी घट सकती हैं, जबकि नीतीश की जनता दल (यूनाइटेड) और कांग्रेस की सीटों में इजाफा हो सकता है.
बिहार की जनता का रुख और इस फैसले का असर आने वाले विधानसभा चुनाव में साफ होगा. बिहार की सियासत में यह फैसला एक नया दांव है. क्या बीजेपी अपनी रणनीति में कामयाब होगी, या नीतीश और तेजस्वी बाजी मारेंगे? यह देखना दिलचस्प होगा.