‘2024 का चुनाव लड़कर रहूंगी’, एक वक्त BJP की फायर ब्रांड नेता रहीं उमा भारती अब साइड लाइन क्यों?

देवराज गौर

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Uma Bharti
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News Tak: मध्यप्रदेश में चुनावी माहौल के बीच भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) नेता उमा भारती एक बार फिर चर्चा में हैं. टीकमगढ़ में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए उमा ने अलग ही अंदाज में कहा कि ‘मैं 24 का चुनाव लड़ूंगी और लड़ कर रहूंगी”. उमा भारती मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं. एक वक्त बीजेपी की फायरब्रांड नेता रह चुकीं उमा आज साइड लाइन क्यों हैं? ऐसा क्यों है कि उन्हें अब अपनी दावेदारी के लिए खुद से ही मोर्चा संभालना पड़ रहा है? क्या उमा भारती का सियासी भविष्य संकट में है?

इससे पहले ‘आजतक’ को दिए एक इंटरव्यू में भी उमा ने कहा था, ‘2019 के लोकसभा चुनावों से पहले मैंने ये कहा था कि मैं 2019 का चुनाव नहीं लड़ूंगी. मैं 27 साल की उम्र में अपना पहला चुनाव लड़ी थी. तब से मैं 6 बार सांसद बनी, 2 बार विधायक बनी. 11 साल केंद्रीय मंत्री रही और मुख्यमंत्री रही.’ उमा भारती के मुताबिक, ‘मैंने गंगा सफाई अभियान के लिए 5 साल का समय मांगा था. लेकिन, मैं 2024 का चुनाव जरूर लड़ूंगी, और मैने कभी खुद को किनारे पर नहीं लगाया और कोई मुझे किनारे पर लगा भी नहीं सकता.’

मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनावों में साफ दिख रहा है कि उमा बीजेपी में पूरी तरह से साइडलाइन हैं. उन्हें किसी भी प्रकार की कोई जिम्मेदारी नहीं सौंपी गई है. चुनावों में जब बीजेपी ने जनआशीर्वाद यात्रा निकाली उससे उमा नाराज हुईं थीं. इस यात्रा में उमा को आमंत्रित भी नहीं किया गया. नाराज उमा ने पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था. ‘आजतक’ को दिए इंटरव्यू में उमा ने कहा था कि ‘मुझे जाना भी नहीं था जनआशीर्वाद यात्रा में, क्योंकि मैं भीड़ का हिस्सी नहीं बनती, लेकिन पार्टी को निमंत्रण भेज देना चाहिए था, झूठे मुंह ही भेज देते.’ पोस्टरों से गायब उमा ने इस पर भी अपनी नाराजगी जताई थी. उमा ने कहा था कि ‘इतने सारे नेताओं के फोटो लगाए गए, एक फोटो हमारा भी लगा देते किसी कोने में.’

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आइए आज आपको उमा भारती की पूरी सियासी यात्रा की कहानी बताते हैं.

उमा भारती की राजनैतिक यात्रा की शुरुआतः

3 मई 1959, टीकमगढ़ के डुंडा गांव में उमा भारती लोधी परिवार में पैदा हुईं. कम उम्र में ही वह भागवत बांचने लगीं. उनकी कथा मशहूर हुई तो खबर बीजेपी नेता विजयाराजे सिंधिया तक पहुंची. 1984 में सिंधिया ने उमा को खजुराहो से बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ाया. उमा हार तो गईं, लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस), बीजेपी और विश्व हिंदू परिषद के नजदीक आ गईं. वह राम मंदिर आंदोलन में भी सक्रिय हुईं. इन्हीं सब के बीच 1989 में वो खजुराहो से चुनाव लड़ीं और पहली बार लोकसभा सदस्य बनीं. तब मध्य प्रदेश में कांग्रेस बेहद मजबूत स्थिति में थी. दिग्विजय सिंह कांग्रेस से लगातार दो बार 1993 और 1998 में मुख्यमंत्री बने. दिग्गी दोनों बार चुनाव जीते. कहा गया की दोनों बार मध्यप्रदेश बीजेपी की गुटबाजी ने उनका भरपूर सहयोग किया. यहां से बीजेपी ने उमा भारती के चेहरे को आगे बढ़ाने की कोशिश की.

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दिग्विजय सिंह का रथ रोकने के लिए इस बार उमा को तैनात किया गया. यह हुआ एमपी के 2003 के चुनावों से केवल एक साल पहले यानी 2002 में. तब उमा भारती भोपाल से सांसद और वाजपेयी सरकार में केन्द्रीय मंत्री थीं. बीजेपी ने उमा से प्रदेश अध्यक्ष बनने को कहा, उन्होंने मना कर दिया. उन्होंने अपनी पसंद के दो नेताओं को आगे कर दिया. विक्रम वर्मा की जगह कैलाश जोशी को अध्यक्ष बनाया गया और गौरीशंकर सेजवार की जगह बाबूलाल गौर को नेता प्रतिपक्ष. उमा भारती को कमान देना बीजेपी हाईकमान के लिए आसान नहीं था. प्रदेश में हो रहे दिग्विजय विरोधी आंदोलनों में उनकी सक्रियता देख पार्टी के भीतर ही उनका विरोध शुरू हो गया. लेकिन चुनाव से 6 महीने पहले ही प्रमोद महाजन की सलाह पर लाल परेड मैदान में अटल ने उमा के नाम का ऐलान कर दिया. इसके बाद विरोध के स्वर ठंडे पड़ गए.

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उमा भारती आईं तो विकास के साथ हिंदुत्व भी लेकर आईं. बिजली, पानी और सड़क पर उन्होंने कांग्रेस की दिग्विजय सिंह सरकार के 10 साल के कुशासन को जिम्मेदार ठहराया. दिग्गी को मिस्टर बंटाधार कहा. धार की भोजशाला जैसे सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील मसलों को भी उछाला. उमा भारती ने संकल्प यात्रा निकाली, नारा दिया, आप सत्ता का परिवर्तन करो, हम व्यवस्था परिवर्तन करेंगे. सत्ता परिवर्तन हो गया. बीजेपी ने एमपी की कुल 230 सीटों में से 173 सीटें जीतीं वहीं कांग्रेस 38 पर सिमटकर रह गई. नतीजे आने के वक्त उमा भोपाल में नहीं थीं. वह सतना की महिअर देवी मंदिर में बैठीं देवी की पूजा कर रहीं थीं. शाम को करीब साढ़े 5 बजे हेलिकॉप्टर से वह भोपाल में लाल परेड मैदान पर उतरीं. 8 दिसंबर 2003 को यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री और एमपी के गवर्नर रामप्रकाश गुप्ता ने उमा भारती को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवाई.

गंगाजल उठवा बाबूलाल को बनाया मुख्यमंत्रीः

21 अगस्त 2004 को उमा भारती को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा. इसकी वजह बना एक गैर जमानती वारंट . मामला था 1995 का. कर्नाटक के हुबली में एक विवादित ईदगाह में उमा ने हजारों की भीड़ के साथ आंदोलन कर तिरंगा झंडा फहराया था. इस्तीफे की एक बड़ी वजह खुद बीजेपी भी बनी. बीजेपी ने आंदोलन छेड़ रखा था कि लालू यादव, तस्लीमुद्दीन, जयप्रकाश यादव और एमए फातमी जैसे दागी मंत्रियों को जब तक मंत्रिमंडल से नहीं हटाया जाएगा वो चैन से नहीं बैठेंगे. ये दबाव उमा भारती पर बैकफायर कर गया. मुख्यमंत्री बनने के एक साल के भीतर ही केवल 258 दिन बाद उमा भारती को इस्तीफा देना पड़ा. जानकार मानते हैं कि उमा भारती ने ये फैसला इसलिए लिया कि उन्हें लगता था कि तिरंगे के नाम पर ये कुर्बानी उन्हें और बड़ा नेता बना देगी. ये उमा भारती की सबसे बड़ी राजनीतिक गलती थी.

उमा इस्तीफे के लिए तैयार तो हुईं लेकिन रिमोट अपने हाथ में रखने की शर्त पर. उन्होंने बाबूलाल गौर को कसम खिला मुख्यमंत्री बनाया. सीएम बनने के बाद उमा ने उन्हें सीएम हाउस में 21 देवी-देवताओं के सामने गंगाजल उठाकर शपथ दिलवाई. शपथ इस बात की थी कि जब उमा कहेंगी, बाबूलाल गौर इस्तीफा लिए तैयार रहेंगे. हालांकि, जब शिवराज सिंह चौहान के मुख्यमंत्री बनने की बारी आई और उमा ने गौर को इस्तीफा न देने को कहा तो गौर ने यह कहते हुए कि “आपने मुझे जब कहें तब इस्तीफा देने की कसम दिलाई थी. इस बात के लिए नहीं कि मैं इस्तीफा कब नहीं दूंगा.””.

गोविंदाचार्य से निजी संबंधों की बात कह विवादों में घिरीं

1 मई 2004 को भोपाल के रविंद्र भवन में एक किताब का विमोचन था. कार्यक्रम में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर, बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष कैलाश जोशी, संघठन मंत्री कप्तान सिंह और गोविंदाचार्य बैठे थे. उमा मंच पर आईं. मंच पर आते ही उन्होंने अपने और गोविंदाचार्य के निजी संबंधों पर बोलना शुरू कर दिया. गोविंदाचार्य आरएसएस के कद्दावर चेहरा रह चुके थे. उमा ने तब कहा था कि, ‘1991 के लोकसभा चुनावों के बाद गोविंदाचार्य ने मुझसे विवाह करने की इच्छा प्रकट की थी. जैसे ही मेरे भाई को स्वामी लोधी को ये बात पता चली तो उन्होंने तत्काल इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया. फिर एक साल बाद 17 नवंबर 1991 को मैंने सन्यास ले लिया.’ उमा के इस बयान के बाद हॉल में एक असहज चुप्पी छा गई.
संघ को भी उमा का बड़बोलापन रास नहीं आया.

जब आडवाणी को दे डाली चुनौतीः

साल 2004, नवंबर का महीना, धनतेरस का दिन. बीजेपी मुख्यालय में मीटिंग. कमरे में टीवी पत्रकार कैमरे लिए पहले से मौजूद थे. वहां जो हुआ वह पूरे देश ने देखा. पार्टी अध्यक्ष आडवाणी ने बोलना शुरू किया. “कई लोग अक्सर मुझसे पूछते हैं कि उमा भारती, शाहनवाज हुसैन और मुख्तार अब्बास नकवी जैसे नेता एक दूसरे के खिलाफ क्यों बयान देते रहते हैं? तो मुझे अच्छा नहीं लगता. ये तरीका बंद होना चाहिए”. आडवाणी का इतना बोलना था कि उमा खड़ी हुईं और बोलीं “इस हॉल में 4-5 नेता बैठे हैं जो मेरे खिलाफ ऑफ द रिकॉर्ड ब्रीफिंग कर अखबारों में खबरें छपवाते हैं. मुझे अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए हर बार सफाई देनी पड़ती है. इसे अनुशासनहीनता कहा जा रहा है. जो लोग राज्यसभा में बैठे हैं, उन्हें कुछ काम तो है नहीं, बस यही करते हैं.”

आडवाणी बोले “मैं कह चुका हूं. ये विषय समाप्त हो चुका है. आप बैठ जाइए.” पर उमा नहीं मानी. आडवाणी को कार्यवाही की चुनौती देकर मीटिंग से निकल गईं. उन्हें निलंबित कर दिया गया.

उमा ने अयोध्या जाने का ऐलान किया. उन्हें लगा पार्टी फिर मनाएगी. मगर वह गलत थीं. डेढ़-दो साल कुढ़ने और यात्रा करने के बाद उन्होंने अपनी एक नई पार्टी बनाने का ऐलान किया. 30 अप्रैल 2006 को उज्जैन में भारतीय जनशक्ति पार्टी (बीजेएस) की घोषणा हुई. 2008 के मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनावों में उमा की पार्टी ने बीजेपी को नुकसान नहीं बल्कि फायदा पहुंचाया. एंटी-इन्कंबेंसी वोट बीजेएस और कांग्रेस के बीच बंट गया. 213 सीटों पर लड़ी उमा की पार्टी को केवल 6 सीटें ही मिलीं. उमा भारती खुद अपने क्षेत्र टीकमगढ़ में कांग्रेस के यादवेंद्र सिंह से 9000 से ज्यादा वोटों से हार गईं.

कुछ बरसों बाद उमा को समझ आ गया कि पार्टी चलाना उनके बस की बात नहीं है. इसी सबके बीच 2011 में दोबारा बीजेपी में उनकी वापसी हुई. यह कहानी भी बेहद खास है.

उमा की बीजेपी में दोबारा एंट्री

साल 2009 में बीजेपी लगातार दूसरी बार लोकसभा चुनाव जीतने से चूक गई थी. संघ ने बीजेपी पर शिकंजा कसा. राजनाथ और आडवाणी की विदाई तय कर दी गई. बीजेपी के नए मुखिया के तौर पर नितिन गडकरी को चुना गया. गडकरी की पहली राजनैतिक परीक्षा 2012 का यूपी चुनाव था. उसके पहले 2011 में गडकरी के सामने एक राजनैतिक परेशानी आ खड़ी हुई. गडकरी को इसके समाधान के लिए नागपुर में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के पास केशव भवन जाना पड़ा.

गडकरी ने संघ प्रमुख भागवत को बताया कि 6 जून को लखनऊ में कार्यकारिणी बैठक है. उमा भारती को वापस लाना चाह रहा हूं. दिल्ली में बैठे नेता इसका विरोध कर रहे हैं. विरोध में सुषमा स्वराज और वैंकेया नायडू इस्तीफे की धमकी दे रहे हैं. भागवत ने साफ कर दिया कि फैसला नहीं बदलेगा. मामले में संघ प्रमुख की एंट्री के बाद नेताओं ने अपने पैर सिकोड़ लिए. 7 जून 2011 को उमा ने अशोका रोड, दिल्ली स्थित केंद्रीय कार्यालय में बीजेपी ज्वाइन की. राजनीति के जानकारों ने इसे उमा का दूसरा राजनैतिक जन्म कहा.

लेकिन उस दौरान मध्यप्रदेश के सीएम शिवराज ने एक शर्त रखी, कि दीदी एमपी से दूर रहेंगी. गडकरी की भी यही योजना थी. 2012 के यूपी चुनाव में उमा भारती को पार्टी का सीएम फेस घोषित किया गया. उमा अपनी लोधी जाति की बहुलता वाली हमीरपुर की चरखारी सीट से विधायकी भी लड़ीं. वह चुनाव जीतीं. मगर पार्टी सूबे में तीसरी बार बुरी तरह हारी. दो साल बाद यूपी में बीजेपी का जलवा फिर कायम हुआ, क्योंकि अब यूपी ही नहीं देश में मोदी युग शुरू हो चुका था. उमा को भी इस दफा यूपी की झांसी सीट से लड़ाया गया, ताकि आस-पास के लोधी वोटरों के बीच दुरुस्त संदेश जाए. उमा बड़े अंतर से जीतीं और गंगा सफाई मंत्री बनीं. उसके बाद 2019 के लोकसभा चुनावों में उन्होंने चुनाव न लड़ने की घोषणा की. अब फिर से समय का पहिया उन्हें राजनीति की ओर खींच कर लाना चाहता है. उमा चुनाव लडने का दावा तो कर रही हैं पर आने वाला समय बताएगा कि उनका राजनैतिक वनवास खत्म होगा या उनकी पारी पूरी हो चुकी है.

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