राहुल गांधी के लिए इंदिरा गांधी से बेहतर 'दादा' फिरोज गांधी हैं रोल मॉडल! रशीद किदवई से समझिए कैसे?

अभिषेक

वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई लिखते हैं कि, लोकसभा में विपक्ष के नेता के रूप में, राहुल गांधी के लिए अपनी दादी इंदिरा गांधी के बजाय दादा फिरोज गांधी के नक्शेकदम पर चलना बेहतर होगा.

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Rahul Gandhi as LoP: 18वीं लोकसभा का सत्र शुरू हो चुका है. आज ओम बिरला को सदन का अध्यक्ष चुन लिया गया. इसी के साथ बीते दिन कांग्रेस नेताओं ने एक बैठक कर राहुल गांधी को लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष(LoP) बनाने पर सहमति बनाई. संसद में आज राहुल गांधी की इंट्री लोकसभा नेता प्रतिपक्ष के तौर पर हुई. पहले की अपेक्षा राहुल गांधी आज बदले-बदले से नजर भी आए. सालों से जहां वो सफेद टी-शर्ट में दिखते थे आज वो कुर्ते-पजामे में नजर आयें. विपक्ष की तरफ से उन्हें नेता प्रतिपक्ष बनाए जाने के बाद वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई ने इंडिया टुडे में एक ओपिनियन लेख लिखा हैं. आइए आपको बताते हैं क्या लिखा है उन्होंने. 

वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई लिखते हैं कि, लोकसभा में विपक्ष के नेता के रूप में, राहुल गांधी के लिए अपनी दादी इंदिरा गांधी के बजाय दादा फिरोज गांधी के नक्शेकदम पर चलना बेहतर होगा. हालांकि ये तथ्य है की 1999 में हुए बीबीसी के एक सर्वे में इंदिरा गांधी को पिछले हजार वर्षों की सबसे महान महिला के रूप में पाया गया. इस सूची की शीर्ष 10 में एलिजाबेथ द्वितीय, मैरी क्यूरी, मदर टेरेसा और यहां तक ​​कि बर्मी राजनेता आंग सान सू की भी शामिल थीं. वैसे राहुल गांधी के दादा फिरोज गांधी, जो एक उत्कृष्ट सांसद माने जाते थे. वे होमवर्क, डेटा और आंकड़ों के साथ अपनी बातें रखने के लिए जाने जाते थे. वो निश्चित तौर पर राहुल के लिए एक आइडियल रोल मॉडल है. 

नेहरू सरकार के मंत्री को कटघरे में कर दिया था खड़ा 

1960 में अपनी मृत्यु से पहले फिरोज गांधी ने एक जबरदस्त खुलासा किया जिसे 'मुंद्रा मामले' के नाम से जाना जाता है. इस मामले में उन्होंने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को निशाने पर लिया था. इसमें नेहरू के करीबी सहयोगी और तत्कालीन वित्त मंत्री टीटी कृष्णामाचारी को इस्तीफा तक देने को मजबूर होना पड़ा. आपको बता दें कि, फिरोज गांधी ने बीमा कंपनियों और व्यापारियों के बीच एक भ्रष्ट सांठगांठ को उजागर किया, जिसकी वजह से अंततः भारत में जीवन बीमा का राष्ट्रीयकरण हुआ. 

वरिष्ठ पत्रकार बीजी वर्गीस जो उस समय संसदीय कार्यवाही को कवर करते थे ने बाद में अपने एक साक्षात्कार में कहा है कि, 'फिरोज गांधी अपनी तैयारी में मेहनती और संपूर्ण थे.' इसके विपरीत राजनेताओं में इंदिरा गांधी संसद के प्रति अक्सर कम प्रतिबद्धता दिखाती थीं. आपातकाल के दौरान उन्होंने लोकसभा की अवधि बढ़ा दी, जो स्पष्ट रूप से गलत था. उन्होंने अध्यादेश राज की शुरुआत की और संसद के बाहर कई नीतिगत फैसले लिए.

जब राहुल ने लगाया था पीएम मोदी को गले 

रशीद किदवई लिखते हैं कि, जुलाई 2018 में राहुल गांधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास गए और संसद सदस्यों और टेलीविजन कैमरों के सामने उन्हें गले लगाया. उस दिन राहुल गांधी जुझारू थे और भूकंप पैदा करने की धमकी दे रहे थे हालांकि तब लोगों को लगा कि उनके अंदर वो आग नहीं है. राफेल से लेकर डोकलाम तक हर जगह राहुल गांधी के भाषण में तथ्यों और आंकड़ों का अभाव था. तब कोई भी यह तर्क दे सकता है कि, राहुल गांधी ने एक सक्षम सांसद की बजाय एक राजनेता की तरह अधिक काम किया जिससे संसद और सार्वजनिक रैलियों के बीच की रेखा कुछ हद तक धुंधली हो गई है. 

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अधिक जिम्मेदार और फोकस दिख रहे हैं राहुल गांधी 

अब जब राहुल ने औपचारिक रूप से विपक्ष के नेता का पद संभाल लिया है, तो उन्हें अधिक विजिबल, जिम्मेदार और फोकस होने की आवश्यकता होगी. वैसे ये साफ दिखता है कि राहुल गांधी ने वर्तमान में परिपक्वता और फोकस के संकेत दिखाए हैं. 2024 के लोकसभा चुनाव खत्म होने के तुरंत बाद, राहुल गांधी ने एग्जिट पोल के निष्कर्षों को स्टॉक एक्सचेंज में उथल-पुथल से जोड़ने पर सवाल उठाने और चुनौती देने के लिए एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की. प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने तथ्यों और आंकड़ों के साथ शांत, नपे-तुले लहजे में सभी सवालों का जवाब दिया. अपनी टी-शर्ट वाले लुक से हटकर राहुल गांधी को आज सफेद कुर्ता-पायजामा में संसद में प्रवेश करते देखा गया, जिससे उनकी नई भूमिका में संयम आता दिखा. 

रशीद किदवई लिखते हैं कि मुझे लगता है कि, आने वाले दिनों, हफ्तों और महीनों में राहुल गांधी की तरफ से और अधिक कार्रवाई देखने को मिलेगी. उनका गेम प्लान साफ ​​है. वह 2029 में फिर से मोदी सरकार को वोट देने से उनके 'तटस्थ मतदाताओं' को हतोत्साहित करना चाहते हैं. 

दादी इंदिरा का रहा हैं राहुल से गहरा नाता 

रशीद किदवई लिखते है कि, 'व्यक्तित्व की चतुर मानी जाने वाली इंदिरा गांधी बचपन में भी राहुल गांधी के धैर्य और दृढ़ संकल्प को बहुत महत्व देती थीं. अक्टूबर 1984 में जब इंदिरा की मृत्यु हुई, तब राहुल 14 साल के थे, लेकिन वह उनके साथ उन विषयों को साझा करती थीं, जिन्हें वह अक्सर राजीव या सोनिया को बताने से बचती थीं. उदाहरण के लिए, जून 1984 में, अपनी हत्या से कुछ महीने पहले से ही इंदिरा गांधी को अपनी जान का डर था तब वह राहुल से कहती थीं कि वह 'कार्यभार संभालें' और जब उनकी मृत्यु हो तो रोएं नहीं. 

जून 1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद, जब भारतीय सेना ने पंजाब के स्वर्ण मंदिर से आतंकवादियों को खदेड़ दिया, तो इंदिरा गांधी को यह यकीन हो गया कि वह संभवतः एक हिंसक मौत मरने वाली हैं. तब उन्होंने चुपचाप राहुल से अंतिम संस्कार की व्यवस्था के बारे में बात की, और उन्हें बताया कि वह अपना जीवन जी चुकी है. तब शायद राहुल यह बात समझने के लिए बहुत छोटे थे, लेकिन उनमें इंदिरा गांधी को अपने आंतरिक विचारों को साझा करने और उनके फैसले पर भरोसा करने के लिए एक आदर्श साथी मिल गया था. अब 40 साल बाद कई कांग्रेसी अब इस बात पर विचार कर रहे हैं कि राहुल पर इंदिरा का भरोसा सच्चा था. 

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