4 बार मुख्यमंत्री रहीं बसपा सुप्रीमो मायावती ने यूपी में कैसी खोई अपनी सियासी जमीन? समझिए
मायावती ने 2024 लोकसभा चुनाव में अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान किया है. माना जा रहा है कि बसपा इस बार मुश्किल ही 2019 के मुकाबवे प्रदर्शन करने में कामयाब हो पाएगी.
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Mayawati: उत्तर प्रदेश देश के सबसे बड़े राज्यों में से एक है जो लोकसभा में 80 सदस्य भेजता है. राज्य की 8 सीटों पर पहले चरण में मतदान 19 अप्रैल को हुए. 26 अप्रैल को अन्य 8 सीटों पर मतदान होने हैं. पहले चरण के मतदान खत्म होने के बाद जमीनी रिपोर्ट से संकेत मिले हैं कि बहुजन समाज पार्टी को 2019 के मुकाबले 10 सीटें मिलना मुश्किल हैं.
बसपा प्रमुख मायावती ने पिछले दिनों एक जनसभा में संबोधन के दौरान वादा किया था कि अगर उनकी पार्टी राज्य में सत्ता में आती है, तो वह इन जिलों को मिलाकर एक अलग राज्य बनाएंगी. यह पहली बार नहीं है कि बसपा अध्यक्ष ने उत्तर प्रदेश को छोटी इकाइयों में बांटने का समर्थन किया है. क्या इससे बसपा उत्तर प्रदेश में अपनी गिरती चुनावी साख को पुनर्जीवित करने में कामयाब हो पाएगी?
बसपा का चुनावी सफर
साल 1980 के दशक में बसपा ने अपनी चुनावी यात्रा शुरू की. पार्टी ने जातीय समीकरण पर फोकस करते हुए और बढ़ते कंपटीशन के बीच लगातार चुनावों में यूपी में अपने वोट प्रतिशत में लगातार वृद्धि हासिल की. साल 1993 तक बसपा को दलित वोटर्स का समर्थन मिला लेकिन दोहरे अंक के आंकड़े तक पहुंच पाने में कामयाब नहीं हो पाई.
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1993 में बसपा और समाजवादी पार्टी ने मिलकर चुनाव लड़ा और 67 सीटों पर जीत हासिल की. सपा नेता मुलायम सिंह बसपा और अन्य पार्टी के समर्थने से मुख्यमंत्री बने. इस दौरान कांशीराम और मायावती ने धीरे-धीरे ओबीसी के लोगों के बीच पहुंचने का प्रयास किया और अपनी पार्टी के विस्तार करने की कोशिश की. इससे बसपा को सबसे पिछड़े वर्गों के बीच बढ़त हासिल करने में मदद मिली. यह ऐसा वर्ग था जो यादव और लोध जैसे उच्च ओबीसी के प्रभुत्व से नाराज था.
बसपा के मास्टर स्ट्रोक से पिछड़ा बीजेपी
1999 से 2014 के बीच बसपा ने एक मास्टर स्ट्रोक खेलकर सपा और बीजेपी में सियासी भूचाल ला दिया. 2004 के लोकसभा चुनाव के बाद मायावती पार्टी ने "बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय" से "सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय" में तबदील कर के एक मास्टर स्ट्रोक खेला जिससे पार्टी को दलितों, एमबीसी और ऊंची जातियों को एक साथ लाने के प्रयोग से बसपा को अपने दम पर बहुमत हासिल करने में मदद मिली. इसके बाद 2007 के राज्य विधानसभा चुनावों में यूपी में पार्टी का वोट शेयर 25 फीसदी को पार कर गया. कई लोग मानना है कि 2000 के दशक में बसपा उम्मीदवार इस बात से पूरी तरह आश्वस्त हो गए थे कि दलित वोट बैंक उनका पक्का वोटर हो गया है.
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लेकिन 2014 में मोदी की लहर के आगे बसपा का वोट प्रतिशत गिरता नजर आया. क्योंकि उस समय दलित मतदाताओं का एक वर्ग भाजपा की ओर चला गया. इससे पार्टी को नुकसान हुआ और उनका वोट प्रतिशत 20 प्रतिशत से भी कम का रह गया. बावजूद इसके 2017 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को 22.2 वोट प्रतिशत मिला लेकिन पार्टी मुश्किलों से उभर नहीं पाई. 2019 में सपा और बसपा ने फिर गठबंधन कर के चुनाव लड़ा लेकिन फिर भी बीजेपी सबसे ज्यादा सीटें जीतकर अपनी सरकार बनाने में कामयाब हो गई.
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किन कारणों के चलते प्रदर्शन में आई गिरावट?
2007 में यूपी में बहुमत हासिल करने के बाद 2009 के लोकसभा चुनावों में, बसपा और मायावती ने दिल्ली में उच्च पद हासिल करने का लक्ष्य रखा लेकिन, यह अवसर जल्दी ही ख़त्म हो गया. लोकनीति द्वारा एकत्र किए गए सर्वेक्षण के आंकड़े मायावती की घटती लोकप्रियता को रेखांकित करने में मदद करते हैं। राजनीतिक प्रचार की उनकी पिछली शैली, जो पूरी तरह से जाति की पहचान के इर्द-गिर्द एक मुखर कथा के निर्माण पर केंद्रित थी, दो कारणों से दलित मतदाताओं के बीच कम होती चली गई.
इस बात की चर्चा है कि मायावती काफी दबाव में है क्योंकि उन्हें कथित भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच कर रहे ED और अन्य केंद्र जांच ऐजेंसियों की कार्रवाई का डर सता रहा है. इसने विपक्षी गठबंधन INDIA में शामिल होने जैसे फैसलों को भी प्रभावित किया है. कुछ लोगों का मानना है कि मायावती जानकर कर के ऐसे उम्मीदवार उतार रही है जिससे के इंडिया ब्लॉक के उम्मीदवारों को नुकसान पहुंचे. 2024 लोकसभा चुनाव में ऐसी संभावना है कि बसपा का वोट शेयर पिछले चुनाव के मुकाबले और कम हो सकता है.
रिपोर्ट: राहुल वर्मा
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