बिहार में वोट बंदी पर गहराया संकट, क्या है चुनाव आयोग के दावे और जमीनी हकीकत?

विजय विद्रोही

राहुल गांधी ने इस आंदोलन के दौरान महाराष्ट्र में कथित "वोट चोरी" का जिक्र करते हुए आरोप लगाया कि भाजपा चुनाव आयोग के साथ मिलकर बिहार में भी वोट चोरी करने की साजिश रच रही है.

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बिहार में हाल ही में हुए "वोट बंदी" के विरोध में जनता सड़कों पर उतर आई है, जिसने पूरे राज्य में जन आंदोलन का रूप ले लिया है. सुबह 6 बजे से ही सड़कों पर उतरे प्रदर्शनकारियों ने हाईवे और रेल पटरियों को जाम कर दिया, जिससे आम जनजीवन प्रभावित हुआ. यह विरोध प्रदर्शन अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर टिका है कि क्या वह बिहार में कथित वोट बंदी के खिलाफ कोई राहत देगा.

जन आक्रोश और राजनीतिक संदेश

बिहार बंद ने एक मजबूत संदेश दिया है. प्रदर्शनकारियों का उत्साह यह दर्शाता है कि यदि सुप्रीम कोर्ट से राहत नहीं मिलती है, तो यह आंदोलन और अधिक उग्र, तीव्र और हिंसक हो सकता है. विपक्षी गठबंधन "इंडिया पॉलिटिकल फ्रंट" को इस मुद्दे पर भाजपा, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, चिराग पासवान और जीतन राम मांझी को निशाना बनाने का एक बड़ा अवसर मिल गया है.

कई जगहों पर, प्रदर्शनकारियों ने अपनी ही जातियों के नेताओं पर सवाल उठाए हैं, जो वोट बंदी के खिलाफ जागरूकता रैलियों के बजाय चुनाव आयोग के पक्ष में रैलियां कर रहे हैं. प्रदर्शन के दौरान कुछ किसानों और दलितों द्वारा अपनी भैंसों को हाईवे पर लाना "काला अक्षर भैंस बराबर" के मुहावरे के माध्यम से चुनाव आयोग और भाजपा को एक सांकेतिक संदेश देने का प्रयास था.

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राहुल गांधी ने इस आंदोलन के दौरान महाराष्ट्र में कथित "वोट चोरी" का जिक्र करते हुए आरोप लगाया कि भाजपा चुनाव आयोग के साथ मिलकर बिहार में भी वोट चोरी करने की साजिश रच रही है. उन्होंने जनता से कहा, "यह बिहार है, हम ऐसा नहीं होने देंगे." यह नारा जनता के बीच से एक बड़ा संदेश बनकर उभरा है कि वे अपने लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं.

चुनाव आयोग के दावे बनाम जमीनी हकीकत

मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार का यह बयान कि बिहार मॉडल को पूरे देश में लागू किया जाएगा, चिंता का विषय बन गया है. यदि ऐसा होता है, तो क्या देश के अन्य हिस्सों में भी बिहार जैसी ही स्थिति उत्पन्न होगी?

चुनाव आयोग दावा कर रहा है कि 7.89 करोड़ मतदाताओं में से 90% से अधिक को फॉर्म दिए गए हैं और 48% फॉर्म वापस भी आ गए हैं, जिनमें से 18% को डेटाबेस में चढ़ाया जा चुका है. हालांकि, इन दावों पर यकीन करना मुश्किल है. बिहार सरकार, भारत सरकार के पासपोर्ट विभाग, नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे और भूमि रिकॉर्ड के आंकड़ों के अनुसार, बिहार में लगभग 40% से अधिक मतदाताओं के पास आवश्यक दस्तावेज नहीं हैं.

उदाहरण के लिए, बिहार में केवल 2% लोगों के पास पासपोर्ट है, और सरकारी नौकरी वाले पहचान पत्र केवल 1.57% लोगों (लगभग 22 लाख) के पास हैं. केवल 15% लोग ही दसवीं पास हैं. इन आंकड़ों के सामने चुनाव आयोग के दावे गले नहीं उतरते.

प्रक्रियात्मक खामियां और महत्वपूर्ण सवाल

योगेंद्र यादव के एक लेख के अनुसार, मतदाताओं को फॉर्म की कार्बन कॉपी नहीं दी जा रही है. यह महत्वपूर्ण है क्योंकि यह कॉपी मतदाता को भविष्य में किसी भी विसंगति के मामले में अपनी बात रखने का आधार देती है. पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस. वाई. कुरैशी और रावत जैसे कई विशेषज्ञों ने भी इस बात पर जोर दिया है कि किसी भी मतदाता का नाम मतदाता सूची में जोड़ने के लिए लगभग छह महीने का समय लगता है और उन्हें पर्याप्त अवसर मिलना चाहिए.

चुनाव आयोग का यह निर्देश भी सवालों के घेरे में है कि यदि किसी के पास दस्तावेज नहीं हैं तो आधार कार्ड जमा करा दें और बाद में दस्तावेज दें. यह पारदर्शिता की कमी को दर्शाता है.

आगे क्या?

यह बिहार बंद केवल राज्य की जनता तक ही नहीं, बल्कि पूरे देश तक एक संदेश ले गया है, खासकर उन राज्यों तक जहां अगले साल चुनाव होने हैं, जैसे पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु और केरल.

लोकतंत्र के लिए यह बेहद खतरनाक है कि कोई वास्तविक नागरिक केवल दस्तावेजों की कमी के कारण अपने मताधिकार से वंचित रह जाए. जैसा कि अदालतों में कहा जाता है कि लाखों दोषी छूट जाएं, लेकिन एक भी निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए, उसी प्रकार, एक भी वास्तविक मतदाता को उसके अधिकार से वंचित नहीं किया जाना चाहिए.

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