जातियों के सर्वे से फिर मंडल बनाम कमंडल की चर्चा शुरू, क्या है इस सियासत की कहानी

देवराज गौर

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क्या है मंडल - कमंडल पॉलिटिक्स, जिसकी चर्चा बिहार कास्ट सर्वे के बाद हो रही है.
क्या है मंडल - कमंडल पॉलिटिक्स, जिसकी चर्चा बिहार कास्ट सर्वे के बाद हो रही है.
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मंडल-कमंडल पॉलिटिक्सः बिहार में नीतीश कुमार ने जातियों के सर्वे का आंकड़ा जारी कर बड़ा सियासी दांव खेला. इसके बाद कई राज्यों में इसकी मांग उठने लगी है. चुनावी राज्यों में कांग्रेस वादा भी कर चुकी है कि उसकी सरकार बनते ही वह कास्ट सेंसस कराएगी. इस मांग को बीजेपी के लिए एक चुनौती समझा जा रहा है. देश में एक बार फिर मंडल बनाम कमंडल की सियासत की चर्चा शुरू हो गई है. जानिए ये मंडल बनाम कमंडल क्या है?

मंडल बनाम कमंडल

साल 1979 में सामाजिक या शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान के लिए मंडल आयोग का गठन किया गया था. इसके अध्यक्ष बीपी मंडल थे. आयोग ने 1980 में अपनी रिपोर्ट दी. तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह की सरकार में साल 1990 में मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू किया गया. इसकी वजह से पिछड़े वर्ग को नौकरियों में 27 फीसदी आरक्षण मिला. मंडल की सियासत में पिछड़े और दलित वर्ग के हितों की राजनीति की वकालत करने वाले नेतृत्व जैसे लालू प्रसाद यादव, शरद यादव, मुलायम सिंह यादव, कांशीराम, मायावती, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान जैसे नेताओं का उभार देखने को मिला.

वीपी सिंह की सरकार को बीजेपी को भी सपोर्ट था. उस वक्त बीजेपी का अयोध्या में राम मंदिर बनाने की मांग का आंदोलन चल रहा था. बीजेपी नेता आडवाणी रथयात्रा निकाल रहे थे. इस दौरान बिहार के सीएम लालू यादव ने समस्तीपुर में आडवाणी का रथ रोका और उन्हें अरेस्ट करवा लिया. बीजेपी ने इस राममंदिर आंदोलन से अपने हिंदुत्व की राजनीति को मजबूत किया. मंडल कमिशन से मजबूत हुई जातिगत राजनीति के सापेक्ष खड़ी हुई हिंदुत्व की इसी राजनीति को मंडल बनाम कमंडल कहा गया.

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2014 में बीजेपी में मोदी-शाह एरा की शुरुआत हुई. बीजेपी ने यूपी और बिहार में गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलित को अपने साथ जोड़ा. ऐसा कर बीजेपी को फायदा भी हुआ. बीजेपी ने यह सब समग्र हिंदू एकता और हिंदुत्व के नाम पर किया. बीजेपी ने मंडल की राजनीति करने वाले दलों के कोर वोट बैंक पर हाथ डालने की बजाय नॉन कोर वोटर्स को साधा. फिलहाल जातिगत जनगणना को लेकर बीजेपी बैकफुट पर दिख रही है. बीजेपी को आशंका है कि यह मांग जितनी जोर पकड़ेगी, ओबीसी वोट बैंक पर उसकी पकड़ उतनी ही ढीली होगी

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