अनुच्छेद 370 पर SC के फैसले के मायने समझिए, क्या केंद्र जब चाहे किसी राज्य को बांट सकता है?
सुप्रीम कोर्ट फैसले का एक मतलब यह भी निकाला गया कि राष्ट्रपति शासन के दौरान केंद्र अपने मन से किसी राज्य को केंद्रशासित प्रदेश में बदल सकता है या इसके अलग हिस्से कर सकता है.
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Union vs State: सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 370 निरस्त कर जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने और इसे अलग-अलग केंद्रशासित प्रदेशों में बांटने का केंद्र सरकार का फैसला बरकरार रखा है. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने एक व्यापक बहस को जन्म दिया है. बहस यह कि क्या सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से किसी राज्य में फेरबदल करने का सर्वोच्च अधिकार केंद्र को मिल गया? यह भी कि क्या इससे भारत के उस संघवाद पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है, जहां मजबूत केंद्र के सामने राज्यों को भी पर्याप्त स्वायत्ता की व्यवस्था है? आइए इसे समझने की कोशिश करते हैं.
सुप्रीम कोर्ट फैसले का एक मतलब यह भी निकाला गया कि राष्ट्रपति शासन के दौरान केंद्र अपने मन से किसी राज्य को केंद्रशासित प्रदेश में बदल सकता है या इसके अलग हिस्से कर सकता है. इसके बाद चर्चा शुरू हुई कि इससे तो संघवाद का बैलेंस ही गड़बड़ हो सकता है. कई लेखों में सवाल उठाए गए कि ऐसी स्थिति में तो किसी प्रदेश में राष्ट्रपति शासन के दौरान उसे लेकर केंद्र मनमाना फैसला कर सकता है. टाइम्स ऑफ इंडिया (टीओआई) के संपादकीय लेख में पश्चिम बंगाल और गोरखालैंड की मांग का जिक्र हुआ. जिक्र ये कि क्या राष्ट्रपति शासन की परिस्थतियों में वहां भी ऐसा संभव है?
इस पूरे मामले पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शशि थरूर ने सोशल मीडिया साइट एक्स पर अपनी प्रतिक्रिया दी हैं. उन्होंने अक्टूबर 2019 के संसद में अपने भाषण में आर्टिकल 370 पर बहस के दौरान का अपना वीडियो शेयर किया हैं जिसमे उन्होंने केंद्र सरकार की ऐसी प्रवित्तियों को खतरनाक मिसाल कायम करना बताया था.
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As I pointed out in the Lok Sabha debate on article 370 in October 2019, a dangerous precedent has been set which the Supreme Court has now ratified. Tomorrow, a government at the Centre can declare any state to be under President’s Rule, and then get its parliamentary majority…
— Shashi Tharoor (@ShashiTharoor) December 12, 2023
नए राज्यों के गठन और मौजूदा राज्यों के क्षेत्र, सीमा को बदलने का प्रावधान क्या है?
2019 में जब मोदी सरकार जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन बिल 2019 लागू करा रही थी, तो वहां राष्ट्रपति शासन था. ऐसी स्थिति में विधायिका की शक्ति का इस्तेमाल संसद करती है. तब सरकार ने लोकसभा और राज्यसभा में जो संकल्प पेश किया उसमें तर्क दिया कि भारत के राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 3 के प्रावधानों के तहत जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन विधेयक, 2019 को इस सदन को अपने विचारों के लिए भेजा है. यह भी कहा गया कि राष्ट्रपति की 19 दिसंबर 2018 की उद्घोषणा (जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगाने की) के अनुसार इसी सदन में जम्मू-कश्मीर के राज्य विधानमंडल की शक्तियां भी निहित हैं. इसके बाद सदन ने विधेयक को स्वीकार कर लिया.
इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंचे याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि राष्ट्रपति एकतरफा तरीके से इस तरफ का फैसला नहीं ले सकते हैं.
अनुच्छेद 3 क्या कहता है
यह अनुच्छेद राज्यों के गठन की प्रक्रिया बताता है. इसके मुाबिक किसी राज्य से उसका राज्यक्षेत्र अलग करके, दो या अधिक राज्यों या राज्यों के हिस्सों को मिलाकर या किसी राज्य के क्षेत्र को किसी राज्य से मिलाकर राज्यों का गठन करना. किसी राज्य का क्षेत्र बढ़ाया या घटाना या सीमा बदलना या नाम बदलना जैसे काम संसद विधि के द्वारा कर सकती है. पर ऐसा तभी जब इससे संबंधित कोई विधेयक राष्ट्रपति की पूर्व अनुशंसा पर पुनर्स्थापित किया जा सकता है. यह भी कि राष्ट्रपति प्रस्ताविक विधेयक पर संबंधित राज्य के विधानमंडल के विचार जानने के बाद ही अपनी अनुशंसा देते हैं.
इस बात को तेलंगाना और उत्तराखंड राज्य बनने की प्रक्रिया से समझा जा सकता है. 2 जून 2014 को तेलंगाना राज्य आंध्र प्रदेश से अलग होकर बना. इससे पहले 5 दिसंबर 2013 को आंध्र प्रदेश की विधानसभा में बिल आया. राष्ट्रपति ने बिल को अपनी सहमति दी और फिर अलग राज्य बना. उत्तराखंड राज्य उत्तर प्रदेश से अलग होकर 9 नवंबर 2000 को अस्तित्व में आया. इसे लेकर 24 सितंबर 1998 को यूपी विधानसभा और विधान परिषद में पहले बिल पेश हुआ और पास हुआ.
राज्यों के विधानमंडल को मिली यही शक्ति संसद और राज्य विधानमंडल के बीच बैलेंस बनाती है, जिसे भारत के संघवाद की खासियत समझा जाता है. जम्मू-कश्मीर के मामले में ऐसा नहीं हुआ क्योंकि जब इससे लद्दाख को अलग कर दोनों को केंद्र शासित प्रदेश बनाने का फैसला हुआ तो वहां विधानसभा भंग थी और राष्ट्रपति शासन लगा था.
फिर सुप्रीम कोर्ट ने कैसे केंद्र के फैसले को सही माना?
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला फैसला 1994 के बोम्मई केस के फैसले को नजीर बनाकर आया. जहां ऐसी व्यवस्था दी गई कि राष्ट्रपति एकतरफा फैसले ले सकते हैं अगर ‘नीयत’ दुर्भावनापूर्ण ना हो तो. बोम्मई केस कर्नाटक की एसआर बोम्मई सरकार से जुड़ा है. 1989 में केंद्र की राजीव गांधी सरकार ने राष्ट्रपति शासन लगा इस सरकार को बर्खास्त कर दिया था. तब सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने ऐसे मामलों को न्यायिक समीक्षा के दायरे में माना. तभी ‘दुर्भावनापूर्ण नीयत’ जैसी बातें आईं, जिनके आधार पर सुप्रीम कोर्ट ऐसे फैसलों की समीक्षा कर सकता है.
370 और जम्मू-कश्मीर से जुड़ी याचिकाओं पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस मामले में राष्ट्रपति द्वारा अपनी शक्ति का इस्तेमाल करना दुर्भावनापूर्ण नहीं है.
एक्सपर्ट क्या मानते हैं?
हमने इस संबंध में और साफ समझ के लिए जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर डॉक्टर संजय कुमार पांडे से बात की. डॉ. संजय पांडे संघवाद जैसे मामलों के एक्सपर्ट माने जाते हैं. उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 370 को लेकर आए फैसले पर वह काफी हद तक सहमत हैं. हालांकि प्रोफेसर पांडे ने माना कि जम्मू-कश्मीर राज्य को स्थानीय विधानमंडल में बिल पेश किये बिना या स्थानीय प्रतिनिधित्व की रायशुमारी के बिना बांटना कोई ठीक सियासी नजीर पेश नहीं करता है. प्रोफेसर संजय पांडे ने कहा कि ऐसा होने पर निश्चित तौर पर केंद्र और राज्य के बीच संघवाद के बैलेंस को चैलेंज मिलता है. यही कहीं न कहीं केंद्र को एक ओवरराइडिंग पावर देता नजर आता है.