जब चौधरी चरण सिंह पर एयरपोर्ट का नाम बदलकर भी अजित सिंह को साथ नहीं ला पाई थी कांग्रेस

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Bharat Ratna news: केंद्र सरकार ने शुक्रवार को पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह, पीवी नरसिम्हा राव और वैज्ञानिक डॉ. स्वामीनाथन को भारत रत्न देने का ऐलान किया. इसे आगामी लोकसभा चुनाव की सियासत से जोड़कर देखा गया और इसका फौरी एक बड़ा सियासी असर भी भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में देखने को मिला. चौधरी चरण सिंह के पोते और राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) चीफ जयंत चौधरी ने साफ कर दिया कि अब वह किसी मुंह से बीजेपी में जाने की बात से इंकार करें. यानी यह पुष्टि हो गई कि मोदी सरकार के इस मूव के बाद जयंत चौधरी अब विपक्ष के इंडिया नहीं बल्कि बीजेपी के एनडीए गठबंधन का हिस्सा हो जाएंगे. अब जबकि चौधरी चरण सिंह ट्रेंड में हैं, तो आइए आपको उनसे जुड़ा एक पुराना किस्सा बताते हैं.

यह किस्सा कुछ ऐसा है कि कांग्रेस ने भी एक बार चौधरी चरण सिंह को सम्मान देकर उनके बेटे और जयंत के पिता चौधरी अजित सिंह को अपने पाले में करने की कोशिश की थी. मजेदार बात यह कि तब कांग्रेस फेल हो गई थी.

मामला यूपीए-1 की मनमोहन सरकार से जुड़ा है

इस सियासी किस्से को जानने के लिए हमें जुलाई 2008 में पहुंचना होगा. उस वक्त देश में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) की सरकार था और डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे. उस वक्त यूपीए सरकार भारत-अमेरिका के साथ सिविल न्यूक्लियर डील कर रही थी. तब यूपीए सरकार में मौजूद वामपंथी फ्रंट ने इसका विरोध किया और सरकार से समर्थन वापसी का ऐलान कर दिया.

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मनमोहन सरकार को 22 जुलाई 2008 को संसद में बहुमत परीक्षण से गुजरना था. वामपंथी दलों के विरोध के बाद मनमोहन सरकार अल्पमत में थी. तभी सरकार के संकट मोचक बनकर आए दिवंगत नेता मुलायम सिंह यादव. समाजवादी पार्टी के पास उस समय 37 सांसद थे. सपा के यूपीए सरकार के सपोर्ट में आने के बावजूद बहुमत का आंकड़ा पूरा नहीं हो रहा था.

यहां से शुरू हुई अजित सिंह को मनाने की कोशिश

2004 में अजित सिंह और राष्ट्रीय लोकदल ने मुलायम के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था. आरएलडी के तब 3 सांसद थे. आरएलडी को अपने पक्ष में करने के लिए तत्कालीन मनमोहन सरकार ने बहुमत परीक्षण की तारीख यानी 22 जुलाई 2008 से पांच दिन पहले 17 जुलाई को लखनऊ के अमौसी एयरपोर्ट का नाम पूर्व पीएम और अजित सिंह के पिता चौधरी चरण सिंह के नाम पर रखने का ऐलान कर दिया.

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कांग्रेस को लगा कि ऐसा कर देने से शायद RLD चीफ अजित सिंह को मनाना आसान हो जाएगा और उनके 3 सांसदों का समर्थन ट्रस्ट वोट में मिल जाएगा. पर ऐसा हुआ नहीं. तब अजित सिंह की तत्कालीन कद्दावर सपा नेता अमर सिंह से अदावत थी. उन्होंने कहा कि अमर सिंह कांग्रेस को चला रहे हैं और उस सरकार को वो सपोर्ट नहीं कर सकते. अजित सिंह के सांसदों ने यूपीए सरकार के खिलाफ वोट किया. इसके बावजूद मनमोहन सिंह सरकार बच गई.

वैसे अजित सिंह का यह स्टैंड ज्यादा दिनों तक कायम नहीं रह सका. वह 2009 का चुनाव उन्होंने बीजेपी के साथ मिलकर लड़ा था. 7 सीटों में से आरएलडी पांच सीट जीत गई. लेकिन बीजेपी इस चुनाव में मनमोहन सिंह सरकार को हरा नहीं पाई. इसके बाद 2011 में अजित सिंह यूपीए के साथ आ गए. उन्हें मनमोहन कैबिनेट में नागरिक उड्डयन मंत्रालय भी मिला.

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2014 के बाद से ही आरएलडी के खराब हाल को देख क्या जयंत ने लिया फैसला?

आरएलडी ने 2014 का चुनाव कांग्रेस के साथ लड़ा. 8 सीटों पर लड़े लेकिन जीते एक भी नहीं. इसके बाद 2019 में आरएलडी यूपी के सपा-बसपा वाले महागठबंधन का हिस्सा बनी. 2 सीटों पर लड़ी. अजित सिंह और जयंत, दोनों अपने चुनाव हार गए. फिर आरएलडी 2022 का विधानसभा चुनाव अखिलेश के साथ लड़ी, लेकिन बीजेपी को हरा नहीं पाई.

इतनी चुनावी हार के बावजूद जयंत चौधरी पिछले करीब डेढ़ साल से विपक्षी सियासत में सक्रिय थे. किसानों के मुद्दे पर मोदी सरकार को घेर रहे थे. विपक्ष के INDIA गठबंधन की बैठकों में सक्रिय थे. अखिलेश यादव ने आगामी लोकसभा चुनाव के लिए यूपी में उन्हें 7 सीटें ऑफर की थीं. पर इस बीच बीजेपी ने गेम कर दिया. अब जयंत चौधरी के पास कहने को ये जरूर है कि किसानों के सबसे बड़े नेताओं में शुमार किए जाने वाले उनके दादा चौधरी चरण सिंह को सबसे बड़ा नागरिक सम्मान यानी भारत रत्न केंद्र सरकार ने दिया तो वह किस मुंह से अब बीजेपी को इंकार करें. पर ऐसा लगता है कि जयंत चौधरी के पास सबसे बड़ी चुनौती 2014 के बाद से ही शास्वत विपक्ष की भूमिका निभाते-निभाते संगठन को टिकाए रखने की भी थी. संभवतः अब जयंत को समझ में आ रहा है कि सरकार का हिस्सा बनकर वह अपनी पार्टी का कुछ ज्यादा सियासी फायदा जरूर करा ले जाएंगे.

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