राजस्थान में कांग्रेस की वापसी के लिए रायपुर से मिला फॉर्मूला, अब 70 फीसदी वोटों को साधने की कोशिश
Rajasthan assembly election 2023: छत्तीसगढ़ के रायपुर में कांग्रेस का 85वां राष्ट्रीय अधिवेशन का समापन रविवार को हो गया. देशभर में फिर से पार्टी को खड़े करने के लिए बड़े बदलावों को लेकर पार्टी के रणनीतिकारों और नेताओं ने मंथन किया. जिसमें कई फैसले भी लिए गए. इस अधिवेशन के बाद कांग्रेस ने संविधान में […]
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Rajasthan assembly election 2023: छत्तीसगढ़ के रायपुर में कांग्रेस का 85वां राष्ट्रीय अधिवेशन का समापन रविवार को हो गया. देशभर में फिर से पार्टी को खड़े करने के लिए बड़े बदलावों को लेकर पार्टी के रणनीतिकारों और नेताओं ने मंथन किया. जिसमें कई फैसले भी लिए गए. इस अधिवेशन के बाद कांग्रेस ने संविधान में रिजर्वेशन को लेकर संशोधन कर दिया है.
पार्टी की कार्यसमिति में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अल्पसंख्यकों के लिए 50 फीसदी आरक्षण की गारंटी देने वाले संशोधन को पास किया है. यानी अब संगठन में इन समुदाय की भागीदारी को जिले से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक सुनिश्चित किया जाएगा. जिसके जरिए ना सिर्फ सामाजिक न्याय की छवि पेश करने की कोशिश है, बल्कि रणनीतिक तौर पर आगामी चुनाव से भी इसे जोड़कर देखा जा रहा है.
जहां देशभर में इसे पार्टी के रिस्ट्रक्चरिंग का फॉर्मूला कहा जा रहा है. वहीं, अब इसके जरिए कांग्रेस का निशाना 2024 के सेमीफाइनल पर होगा. क्योंकि लोकसभा चुनाव से पहले साल के अंत आते-आते राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश जैसे अहम प्रदेशों में विधानसभा चुनाव होने है. जहां पिछली बार कांग्रेस ने अपने बहुमत को मध्य प्रदेश में गुटबाजी के चलते खो दिया.
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दूसरी ओर, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी सत्ता हासिल करने के बावजूद भी पार्टी आंतरिक कलह से जूझ रही है. राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व डिप्टी सीएम सचिन पायलट की गुटबाजी ने आलाकमान को ना सिर्फ चुनौती दी, बल्कि कई मौकों पर पार्टी प्रभारी से लेकर समूचा राष्ट्रीय नेतृत्व नाकाम दिखा. ऐसे में अब पार्टी को पुनर्जीवित करने के लिए जो फॉर्मूला रायपुर में दिया गया, उसके भी अपने मायने है. क्योंकि आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक और ओबीसी से ताल्लुक रखने वाले वोटर्स राजस्थान में 70 फीसदी के करीब है.
12 फीसदी आदिवासी वोटर्स का 60 सीटों पर है प्रभाव
कभी कांग्रेस का कोर वोट बैंक माने जाने वाले आदिवासी वोटर्स ने पिछले कई चुनावों में कांग्रेस के लिए परेशानी बढ़ा दी है. भले ही साल 2018 के चुनाव में कांग्रेस ने जीत हासिल करके सत्ता पा ली, लेकिन इस इलाके में बीजेपी को कांग्रेस से ज्यादा सीटें मिली. वहीं, भारतीय ट्राइबल पार्टी (बीटीपी) भी इस क्षेत्र में दो सीटें जीत पाने में कामयाब रही थी. ऐसे में आदिवासी बेल्ट में कमजोर पकड़ को पार्टी फिर से मजबूत कर सकती है. तय फॉर्मूले के मुताबिक पार्टी में आदिवासी नेताओं को प्रतिनिधित्व मिलता है तो इसका सबसे ज्यादा फायदा पार्टी को दक्षिण राजस्थान में मिलेगा.
सीएसडीएस के स्टेट को-ऑर्डिनेटर प्रो. संजय लोढ़ा मानते है कि ना सिर्फ दक्षिण, बल्कि पूर्वी राजस्थान में पार्टी को इसका लाभ होगा. क्योंकि उदयपुर संभाग और दौसा के आसपास कई हिस्सों को मिला दिया जाए तो प्रदेश में करीब 50 से 60 सीटों पर विधानसभा सीटों पर आदिवासी निर्णायक है. जबकि प्रदेश में करीब 12 फीसदी से भी ज्यादा वोटर जनजाति समुदाय से है.
यही वजह है कि राजस्थान की राजनीति के केंद्र में हर पार्टी के केंद्र में आदिवासी जरूर होता है. अकेले उदयपुर संभाग के 4 जिलों उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा और प्रतापगढ़ की बात करें तो यहां बांसवाड़ा की 5 में से 2 सीट, डूंगरपुर की 4 में से 1 और प्रतापगढ़ जिले की दोनों सीटें फिलहाल कांग्रेस के पास हैं.
पूर्वी हिस्से में ओबीसी का मिला साथ तो कांग्रेस को मिली सत्ता
वहीं, उत्तर-पूर्वी राजस्थान में एक बड़ा तबका दलित वोटर्स का है. अनुमानित तौर पर राज्य में 17 फीसदी वोटर अनुसूचित जाति वर्ग का है. जिसके चलते यह समुदाय प्रदेश की अधिकांश सीटों पर अपना प्रभाव रखता है. जबकि मतदाताओं का कुल 40 से 45 हिस्सा ओबीसी तबके का है. शेखावटी में मूल रूप से जाट, दक्षिण राजस्थान में गुर्जर, आंजना, धाकड़ और डांगी जैसी कृषि आधारित जातियां राज्य में अहम भूमिका निभाती है.
वहीं, पूर्वी राजस्थान में गुर्जरों का साथ मिलने के चलते पिछले चुनाव में कांग्रेस को जीत हासिल करने में मदद मिली. अलवर, भरतपुर, धौलपुर, करौली, टोंक, सवाई माधोपुर और दौसा में 39 विधानसभा सीटें हैं. जिसमें 2013 में बीजेपी को सर्वाधिक 28 सीटें और कांग्रेस को 7 सीटे मिली. जबकि डॉ. किरोड़ीलाल मीणा की पार्टी एनपीपी को 3 और एक सीट बसपा के खाते में गई थी.
जबकि अगले चुनाव में साल 2018 के दौरान तत्कालीन कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट के नेतृत्व में बड़ी सफलता मिली. जिसके चलते बीजेपी महज 4 सीटों पर ही सिमट गई. जबकि कांग्रेस को 25, बसपा को 5, निर्दलीय को 4 और एक सीट आरएलडी को मिली थी. वहीं इसके बाद बसपा का विलय कांग्रेस में हो गया और आरएलडी और निर्दलीय विधायक का समर्थन भी गहलोत सरकार को मिला.
साथ ही अल्पसंख्यक समुदाय की बात करें तो मेवात क्षेत्र और मकराणा, नागौर, जोधपुर, जयपुर समेत 35 से भी ज्यादा सीटों पर यह निर्णायक साबित होता है. प्रदेश में माइनरिटी की 8.5 फीसदी जनसंख्या में एक बड़ा हिस्सा मुस्लिम समुदाय का है. ऐसे में साफ तौर पर अगर कांग्रेस अपने नए फॉर्मूले में सफल होती है तो इसका फायदा साल के अंत में होने वाले चुनाव में जरूर मिलेगा.