Explainer: भारत-अमेरिका ट्रेड डील की ओर बढ़ते कदम, दोस्ती की नई गर्माहट या मजबूरी की राजनीति?

न्यूज तक डेस्क

भारत-अमेरिका के रिश्तों में फिर गर्मजोशी आई है और नवंबर तक बड़ी ट्रेड डील होने की उम्मीद है, लेकिन रूस से तेल खरीद और कृषि उत्पादों को लेकर समझौता आसान नहीं होगा. इंडिया टुडे के मिलिंद खांडेकर ने ‘हिसाब-किताब’ में इस मुद्दे पर विस्तार से चर्चा की है.

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भारत- अमेरिका ट्रेड डील
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भारत और अमेरिका के रिश्तों पर जमीं बर्फ कुछ पिघलने लगी है. अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जो एक महीने पहले तक भारत को Dead Economy यानी मरी हुई अर्थव्यवस्था वाला देश कह रहे थे वो अब पोस्ट कर रहे हैं कि मोदी मेरे दोस्त हैं. डील में कोई दिक्कत नहीं होगी.

वहीं दूसरी तरफ भारत के कॉमर्स मंत्री पीयूष गोयल भी कह रहे हैं कि नवंबर तक दोनों देशों के बीच ट्रेड डील हो सकती है. लेकिन सवाल यह है कि अमेरिका का रवैया अचानक इतना दोस्ताना क्यों हो गया

इंडिया टुडे ग्रुप के तक चैनल्स के मैनेजिंग एडिटर मिलिंद खांडेकर ने अपने साप्ताहिक सीरीज 'हिसाब-किताब' में इस हफ्ते इसी मुद्दे पर विस्तार से बात की है.

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अमेरिका ने क्यों बढ़ाया टैरिफ?

दरअसल, अमेरिका ने भारत से आने वाले सामान पर 50% तक टैरिफ यानी टैक्स लगा रखा है. इस टैरिफ का मतलब है कि भारतीय चीजें अमेरिका में पहले से ज्यादा महंगी हो गई हैं. इसमें से आधा टैक्स (25%) तो इसलिए लगाया गया क्योंकि भारत भी अमेरिकी सामान पर टैक्स लगाता है, इसे Reciprocal Tariff कहते हैं.

लेकिन बाकी 25% टैक्स इसलिए लगाया गया क्योंकि भारत ने रूस से सस्ता तेल खरीदना शुरू कर दिया. अमेरिका को ये पसंद नहीं आया और उसने यह टैक्स दबाव बनाने के लिए लगाया है.

भारत नहीं झुका, उल्टा अमेरिका को झटका

हालांकि भारत इस दबाव में झुका नहीं. प्रधानमंत्री मोदी ने साफ संकेत दिया कि भारत अपनी नीतियों में विदेशी दबाव नहीं मानेगा. उन्होंने रूस और चीन के राष्ट्रपतियों से मुलाकात की और यह दिखा दिया कि भारत अपने हितों को लेकर पूरी तरह गंभीर है. अब धीरे-धीरे इस दबाव का असर उल्टा अमेरिका पर पड़ने लगा है.

अमेरिका में महंगाई और बेरोजगारी बढ़ी

हाल ही में अमेरिका में दो बड़े आंकड़े सामने आए.

1. अमेरिका की महंगाई दर 2.9% हो गई है.

2. बेरोजगारी भी बढ़ रही है. अगस्त में सिर्फ 22,000 नई नौकरियां बनीं.

दरअसल महंगे टैरिफ की वजह से बाहर से आने वाला सामान महंगा हो गया है. आम अमेरिकी अब महंगी कॉफी, महंगी कार और रोजमर्रा के सामानों की ज्यादा कीमत चुका रहा है. कंपनियां लागत बढ़ने के कारण नए कर्मचारियों को नौकरी नहीं दे रही हैं.

अमेरिका का सेंट्रल बैंक दुविधा में

अब अमेरिका का सेंट्रल बैंक फेड रिजर्व भी मुश्किल में है. उसे तय करना है कि ब्याज दरें घटाई जाएं या नहीं. अगर ब्याज दरें घटाता है तो महंगाई और बढ़ सकती है. वहीं अगर ब्याज दर नहीं घटाता तो बेरोजगारी और ज्यादा बढ़ सकती है.

इस दुविधा के बीच भारत जैसे देशों के लिए उम्मीद की किरण है. अगर अमेरिका ब्याज दरें घटाता है, तो वहां से पैसा भारत जैसे बाजारों में आने लगता है क्योंकि यहां रिटर्न बेहतर मिलता है. इससे भारतीय शेयर बाजार को फायदा हो सकता है.

अब बात ट्रेड डील की

अब बात आती है उस ट्रेड डील की जिसकी उम्मीद जताई जा रही है. भारत और अमेरिका के बीच डील भले ही होती नजर आ रही हो, लेकिन इसके रास्ते में कई कठिनाइयां भी हैं. अमेरिका चाहता है कि भारत अपने बाजार को अमेरिकी कृषि और डेयरी उत्पादों के लिए खोले, लेकिन भारत के लिए यह मांग मानना इतना आसान नहीं है.

इससे भारत के किसानों और छोटे कारोबारियों को नुकसान हो सकता है. चाहे केंद्र में कोई भी सरकार हो, देश के कृषि क्षेत्र पर विदेशी कंपनियों की पकड़ बनने देना राजनीतिक रूप से भी जोखिम भरा हो सकता है.

भारत यह जरूर कर सकता है कि वह रूस से तेल खरीद में कुछ पारदर्शिता लाए या खरीद की मात्रा पर बातचीत करे, लेकिन पूरी तरह से अमेरिका की शर्तों को मान लेना संभव नहीं लगता. इसलिए यह डील तभी संभव है जब दोनों देश एक-दूसरे की जरूरत और सीमाओं को समझें और सम्मान करें.

क्यों बदला ट्रंप का रुख

ट्रंप के बदले हुए रुख के पीछे भी राजनीतिक और आर्थिक मजबूरी है. उन्हें पता है कि अगर वे फिर से राष्ट्रपति बनना चाहते हैं तो उन्हें अमेरिकी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना होगा. भारत के साथ अच्छे संबंध बनाकर वे अमेरिकी कंपनियों को नया बाजार दे सकते हैं और घरेलू महंगाई को थोड़ा कम कर सकते हैं. इसलिए वे अब प्रधानमंत्री मोदी को अपना “दोस्त” बता रहे हैं और डील को लेकर सकारात्मक बातें कर रहे हैं.

भारत के लिए यह वक्त काफी सोच-समझकर कदम उठाने का है. अगर अमेरिका भारत से ज्यादा आयात करना चाहता है, तो यह हमारे एक्सपोर्ट के लिए अच्छा मौका है. लेकिन वहीं, हमें अपने घरेलू बाजार और किसानों की सुरक्षा भी सुनिश्चित करनी होगी. डील अगर होती है तो यह दोनों देशों के लिए फायदे की होनी चाहिए, न कि सिर्फ एक पक्ष को फायदा देने वाली.

इंडिया टुडे ग्रुप के 'तक' चैनल्स के मैनेजिंग एडिटर मिलिंद खांडेकर ने अपने साप्ताहिक सीरीज 'हिसाब-किताब' में इस हफ्ते इन्हीं मुद्दों पर बात की है. उन्होंने साफ कहा है कि डील के लिए माहौल जरूर बन रहा है, लेकिन आखिरी फैसला बहुत सोच-समझकर और राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखकर ही होना चाहिए.

भारत और अमेरिका के रिश्तों में फिर से गर्माहट आई है, लेकिन इस रिश्ते को मजबूत करने के लिए दोनों को मिलकर समझदारी और संवेदनशीलता के साथ आगे बढ़ना होगा. अब नजरें नवंबर पर टिकी हैं. देखना ये है कि क्या तब तक ये बड़ी डील हो पाती है या फिर इसे अभी और इंतजार करना पड़ेगा.

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