Israel-Iran Conflict: Nuclear Missile साथ में बनाने से लेकर एक दूसरे पर हमला करने तक, जानिए पूरी कहानी

ऋषि सिंह

इज़रायली प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि इज़रायल की निगाह अब ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामेनेई पर भी है. उन्होंने कहा, मैं सुर्खियों में बयान देने में नहीं, काम से जवाब देने में विश्वास रखता हूं. युद्ध के वक्त शब्दों की नहीं, कार्रवाई की अहमियत होती है. मैंने सुरक्षा बलों को निर्देश दिए हैं कि कोई भी खुद को इज़रायली हमलों से सुरक्षित न समझे.

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इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू और ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामेनेई
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मध्य पूर्व एक बार फिर गंभीर संकट की ओर बढ़ रहा है. ईरान और इज़रायल के बीच का तनाव अब खुले युद्ध में तब्दील होता दिख रहा है. लेकिन इस दुश्मनी के पीछे की कहानी बहुत पुरानी हैइतनी पुरानी कि एक समय था जब ये दोनों देश सहयोगी हुआ करते थे, और साथ मिलकर सुरक्षा, तकनीक और खुफिया मोर्चों पर काम करते थे. इज़रायल की स्थापना 1948 में हुई, और उस समय अधिकांश मुस्लिम देशों ने उसे मान्यता नहीं दी. मगर ईरान, जो उस समय शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी के अधीन था, इज़रायल के समर्थन में आगे आया. दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंध स्थापित हुए और इज़रायल को ईरान से तेल मिलने लगा, जबकि इज़रायल ने ईरान को सिंचाई, कृषि और रक्षा तकनीक में सहायता दी. यहां तक कि दोनों देशों की खुफिया एजेंसियाँ मोसाद और ईरान की SAVAK मिलकर काम करती थीं.

इतना ही नहीं, 1977 में दोनों देशों ने मिलकर ‘Project Flower’ नामक एक संयुक्त मिसाइल कार्यक्रम भी शुरू किया, जिसका उद्देश्य एक परमाणु-सक्षम मिसाइल विकसित करना था. ये सब अमेरिका की जानकारी के बिना किया गया था. सोचिए  जो परमाणु कार्यक्रम आज दोनों को दुश्मन बना रहा है, उसी पर कभी ये एक साथ काम कर रहे थे.

1979 की क्रांति: जब दोस्त दुश्मन बन गए

1979 ईरान के इतिहास का वह साल था, जिसने न केवल उसकी राजनीति को पलट दिया, बल्कि उसकी अंतरराष्ट्रीय पहचान, सोच और रिश्तों को भी जड़ से बदल दिया. इस्लामी क्रांति के साथ शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी का पश्चिम समर्थक शासन खत्म हुआ और अयातुल्ला रुहोल्लाह खुमैनी की अगुआई में एक कट्टर इस्लामी शासन की शुरुआत हुई. सत्ता का यह परिवर्तन सिर्फ सरकार बदलने तक सीमित नहीं था, बल्कि यह एक वैचारिक क्रांति थीएक ऐसी विचारधारा जिसने दशकों पुराने सहयोगी इज़रायल को अचानक दुश्मनों की सूची में सबसे ऊपर ला खड़ा किया.

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इस्लामी गणराज्य की स्थापना के साथ ही अमेरिका को 'महाशैतान' और इज़रायल को 'छोटा शैतान' घोषित कर दिया गया. वह इज़रायल, जो कभी ईरान का रणनीतिक साझेदार था, अब ईरानी सत्ता के लिए इस्लाम का दुश्मन बन चुका था. सारे राजनयिक संबंध एक झटके में खत्म कर दिए गए. तेहरान स्थित इज़रायली दूतावास को बंद कर दिया गया और उसके स्थान पर फ़िलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइज़ेशन (PLO) का दफ्तर खोल दिया गया.

इतना ही नहीं, ईरान के नए पासपोर्ट पर साफ़ शब्दों में लिखा जाने लगा- This passport is valid for all countries except occupied Palestine यानी यह पासपोर्ट केवल इज़रायल को छोड़कर बाकी सभी देशों के लिए मान्य है. 'इज़रायल' शब्द तक हटाकर उसे "अधिकृत फिलिस्तीन" (Occupied Palestine) कहा जाने लगा. इससे यह संदेश पूरी दुनिया को मिल गया कि ईरान अब सिर्फ इज़रायल से दूरी नहीं बना रहा, बल्कि उसे वैध राष्ट्र मानने से भी इनकार कर रहा है. इस क्रांति के बाद सब कुछ बदल गया और अविश्वास, वैचारिक दुश्मनी और प्रॉक्सी वॉर की शुरुआत हुई.

प्रॉक्सी वॉर: सीधा युद्ध नहीं, लेकिन खून बहुत बहा

1980 और 90 के दशक में ईरान ने हिज़्बुल्लाह, हमास और हूती जैसे संगठनों को समर्थन देना शुरू किया. हथियार, फंडिंग और ट्रेनिंग के ज़रिए. इज़रायल को घेरने की रणनीति शुरू हुई.जवाब में मोसाद ने ईरानी वैज्ञानिकों और ठिकानों को निशाना बनाना शुरू किया. गाज़ा, लेबनान, सीरिया और यमन- ये सभी इलाके धीरे-धीरे ईरान और इज़रायल के बीच युद्ध के मैदान बनते चले गए. आज भी यह टकराव जारी है, लेकिन 80 और 90 का दशक वह दौर था जब इसकी नींव रखी गई, और पश्चिम एशिया की भू-राजनीतिक दिशा हमेशा के लिए बदल गई.

ईरान-इराक युद्ध और छुपा इज़रायली समर्थन

दिलचस्प बात यह है कि 1980 में शुरू हुए ईरान-इराक युद्ध में इज़रायल ने गुप्त रूप से ईरान की मदद की. वजह? इराक़ का सद्दाम हुसैन इज़रायल का घोषित दुश्मन था. इज़रायल नहीं चाहता था कि इराक़ ताक़तवर बने, इसलिए उसने ईरान को हथियार सप्लाई किए. यह सहायता अमेरिका की सहमति से हुई, क्योंकि अमेरिका भी इराक़ को एक खतरे के रूप में देखता था. यह सब बाद में 'ईरान-कॉन्ट्रा अफेयर' नाम के एक बड़े घोटाले में सामने आया.

जब परमाणु कार्यक्रम ने जंग की नींव रखी

2000 के दशक की शुरुआत में ईरान के परमाणु कार्यक्रम ने दुनिया की सबसे बड़ी चिंता बननी शुरू कर दी. तेहरान का कहना था कि यह कार्यक्रम पूरी तरह शांतिपूर्ण और ऊर्जा ज़रूरतों के लिए है, लेकिन इज़रायल और अमेरिका को इस पर गहरा संदेह था. इज़रायल का दावा था कि अगर ईरान के पास परमाणु हथियार आ जाते हैं, तो यह उसके अस्तित्व के लिए सीधा खतरा होगा. एक ऐसा दुश्मन जिसके नेताओं ने बार-बार इज़रायल को "नक्शे से मिटा देने" की बात कही हो-अगर उसके पास न्यूक्लियर हथियार आ जाएं, तो खतरा सिर्फ इज़रायल का नहीं, बल्कि पूरे क्षेत्र का हो जाएगा.

अमेरिका ने इस खतरे को गंभीरता से लिया और ईरान पर आर्थिक, कूटनीतिक और सैन्य प्रतिबंधों की एक लंबी श्रृंखला लगा दी. ईरान का अंतरराष्ट्रीय व्यापार, खासकर तेल निर्यात, बुरी तरह प्रभावित हुआ. लेकिन दूसरी ओर, चीन और रूस जैसे देशों ने ईरान के साथ अपने रिश्ते मज़बूत करने शुरू कर दिए, जिससे वैश्विक ध्रुवीकरण और तेज़ हो गया.

तनाव जब चरम पर पहुंचा, तो 2013 में एक अप्रत्याशित पहल हुई. अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा और ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी के बीच एक ऐतिहासिक फोन कॉल हुई-1979 की इस्लामी क्रांति के बाद दोनों देशों के राष्ट्राध्यक्षों की यह पहली सीधी बातचीत थी. इस संवाद ने कूटनीति की एक नई खिड़की खोली, जिसका परिणाम 2015 में दिखाई दिया.

विएना में छह वैश्विक शक्तियों-अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी-की मध्यस्थता में एक ऐतिहासिक परमाणु समझौता हुआ, जिसे JCPOA यानी जॉइंट कंप्रीहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन कहा गया. इस डील के तहत ईरान ने अपने यूरेनियम संवर्धन (enrichment) को सीमित करने, भंडारण को कम करने, और अंतरराष्ट्रीय निरीक्षण की अनुमति देने पर सहमति जताई. इसके बदले में उसे आर्थिक प्रतिबंधों से राहत दी गई.

इस डील को वैश्विक कूटनीति की बड़ी कामयाबी माना गया. पश्चिम एशिया में एक संभावित युद्ध टल गया था, और लगने लगा कि बातचीत से भी समाधान निकाला जा सकता है. लेकिन यह राहत ज्यादा समय तक नहीं चली.

2018 में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस डील को एकतरफा तौर पर रद्द कर दिया. उनका तर्क था कि यह समझौता ईरान को स्थायी रूप से परमाणु हथियार बनाने से नहीं रोकता और न ही उसके मिसाइल कार्यक्रम या प्रॉक्सी मिलिशिया गतिविधियों पर कोई अंकुश लगाता है. ट्रंप के फैसले से ईरान बुरी तरह आक्रोशित हुआ, और उसने धीरे-धीरे JCPOA की शर्तों का उल्लंघन करना शुरू कर दिया-तेज़ी से संवर्धन किया, निरीक्षण सीमित किया और फिर से अपने परमाणु कार्यक्रम को आक्रामक रूप से आगे बढ़ाया.

इसी के बाद से तनाव ने एक स्थायी रूप ले लिया. इज़रायल ने फिर से ईरानी वैज्ञानिकों को टारगेट करना शुरू किया. परमाणु ठिकानों पर साइबर हमले हुए. ईरान ने भी प्रतिरोध किया-हिज़्बुल्लाह और हूती जैसे संगठनों के जरिए इज़रायल पर दबाव बनाना शुरू किया. अब यह टकराव केवल विचारधारा या इतिहास की नहीं रह गई थी-यह तकनीक, सुरक्षा और अस्तित्व की जंग बन चुकी थी. और यही परमाणु कार्यक्रम, जो कभी "ऊर्जा जरूरतों" के नाम पर शुरू हुआ था, आज ईरान और इज़रायल के बीच खुले युद्ध की सबसे ठोस नींव बन चुका है.

13 जून 2025: जब जंग खुलकर शुरू हुई

इस तनाव का विस्फोट हुआ 13 जून 2025 को, जब इज़रायल ने ईरान के भीतर एक बड़ा सैन्य अभियान चलाया. तेहरान के पास स्थित परमाणु ठिकाने, रिवोल्यूशनरी गार्ड्स का मुख्यालय और कई वैज्ञानिकों को निशाना बनाया गया. ईरान ने तुरंत जवाब दिया और दर्जनों बैलिस्टिक मिसाइलें इज़रायली सैन्य अड्डों पर दागीं, जिनमें से कुछ तेल अवीव के पास जाकर गिरीं. उसके बाद से ही दोनों देश एक दूसरे पर लगातार हमले कर रहे हैं.

नेतन्याहू का ऐलान: खामेनेई को खत्म किए बिना युद्ध नहीं रुकेगा

इज़रायली प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि इज़रायल की निगाह अब ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामेनेई पर भी है. उन्होंने कहा, मैं सुर्खियों में बयान देने में नहीं, काम से जवाब देने में विश्वास रखता हूं. युद्ध के वक्त शब्दों की नहीं, कार्रवाई की अहमियत होती है. मैंने सुरक्षा बलों को निर्देश दिए हैं कि कोई भी खुद को इज़रायली हमलों से सुरक्षित न समझे.

विशेषज्ञों का मानना है कि ये बयान सामान्य चेतावनी नहीं, बल्कि एक रणनीतिक संकेत है-कि अब इज़रायल सिर्फ प्रॉक्सी संगठनों या सैन्य ठिकानों तक सीमित नहीं रहेगा. अगर जरूरत पड़ी, तो इज़रायल सीधे तौर पर ईरान के सबसे ऊंचे नेतृत्व को भी टारगेट कर सकता है.

क्या अमेरिका इस युद्ध का सूत्रधार है?

इतिहास को देखा जाए तो यह स्पष्ट होता है कि अमेरिका ही वह ताक़त थी जिसने ईरान और इज़रायल को कभी एक-दूसरे के करीब लाया था. लेकिन वही अमेरिका, जिसने इस साझेदारी को बनाया, उसने ही इसे तोड़ा भी. क्रांति के बाद उसने ईरान को अलग-थलग किया, न्यूक्लियर डील तोड़ी, और इज़रायल को हर स्तर पर समर्थन दिया. आज अमेरिका खुद दोराहे पर खड़ा हैएक ओर उसका पुराना सहयोगी इज़रायल, दूसरी ओर मध्य पूर्व में स्थिरता की जिम्मेदारी.

भारत की सबसे बड़ी परीक्षा

भारत उन गिने-चुने देशों में है जो ईरान और इज़रायल दोनों के साथ अच्छे संबंध रखता है. इज़रायल भारत का रक्षा, साइबर और कृषि तकनीक का अहम साझेदार है. तो वहीं ईरान भारत के ऊर्जा सुरक्षा और क्षेत्रीय संपर्क (चाबहार पोर्ट) का अहम स्तंभ है. लेकिन अब जब दोनों देश युद्ध के मैदान में हैं, भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती है-संतुलन साधना. भारत ने अब तक तटस्थ रुख अपनाया है. लेकिन अगर यह लड़ाई लंबी चलती है, तो भारत को कूटनीतिक रूप से ज्यादा सक्रिय होना पड़ेगा. 

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