क्या कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाकर पंडित जवाहरलाल नेहरू ने की थी गलती?
UN में ले जाने का निर्णय अकेले मात्र नेहरू का नहीं था. ऐसे मुद्दों पर फैसला रक्षा पर कैबिनेट कमेटी करती है जिसमें प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, विदेश मंत्री और अन्य प्रमुख सदस्य होते हैं.
ADVERTISEMENT

Jammu & Kashmir: सोशल मीडिया पर गृह मंत्री अमित शाह का एक बयान वायरल हो रहा है. यह बयान उन्होंने 6 दिसंबर को लोकसभा में कश्मीर से जुड़े दो बिल पेश करने के दौरान दिया. अमित शाह ने देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को कश्मीर समस्या की वजह बताया. वैसे ये कोई पहली बार नहीं है जब बीजेपी सरकार नेहरू को कश्मीर समस्या से जोड़ रही हो. अमित शाह ने इस बार कहा कि नेहरू ने कश्मीर पर दो गलतियां की थीं. शाह ने कहा, दो बड़ी गलतियां पंडित नेहरू के प्रधानमंत्री काल में उनके लिए गए निर्णयों से हुईं, जिसके कारण कश्मीर को सालों तक नुकसान उठाना पड़ा. सबसे बड़ी गलती, जब हमारी सेना जीत रही थी तब सीजफायर कर दिया गया और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (PoK) का जन्म हुआ. अगर सीजफायर तीन दिन लेट होता, तो आज PoK भारत का हिस्सा होता. दूसरा अपने आंतरिक मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में ले जाना.’
"दो बड़ी गलतियां जो जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्री काल में हुईं, उनके लिए गए निर्णयों से हुईं, उनके लिए सालों तक कश्मीर को सहन करना पड़ा है… जब हमारी सेना जीत रही थी, पंजाब का एरिया आते ही सीज़फायर कर दिया गया और PoK का जन्म हुआ… दूसरा UN के अंदर हमारे मसले को लेकर जाने की… pic.twitter.com/mLsr7YT34H
— News Tak (@newstakofficial) December 6, 2023
शाह के इस बयान के बाद कांग्रेस समेत पूरा विपक्ष मोदी सरकार पर हमलावर है. राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के सांसद मनोज झा ने तो तंज कसते हुए मोदी सरकार को सलाह दी है कि उन्हें जवाहरलाल नेहरू पर एक मंत्रालय ही बना लेना चाहिए.
यह भी पढ़ें...
Dear Prime Minister @PMOIndia SirJi! An unsolicited but very important advice, while you go for the cabinet expansion please constitute a new Ministry to be called..Ministry on/about Jawaharlal Nehru. I am sure it shall help you, your party and your cadre immensely.
Jai Hind— Manoj Kumar Jha (@manojkjhadu) December 7, 2023
आइए इस पूरे विवाद को समझने की कोशिश करते हैं.
कश्मीर समस्या की मूल जड़ क्या थी?
इस बात को समझने के लिए हमने नेशनल काउंसिल ऑफ एजुकेशन रिसर्च एंड ट्रेनिंग (NCERT) की 12वीं की राजनीति विज्ञान की किताब का रुख किया. इस किताब के अध्याय Regional Aspirations यानी क्षेत्रीय आकांक्षाएं में इस समस्या पर विस्तार से जानकारी दी गई है. इसके मुताबिक 1947 में आजादी मिलने से पहले जम्मू-कश्मीर एक रियासत हुआ करती थी. इसके शासक हिंदू राजा हरि सिंह थे, जो आजादी के बाद भारत या पाकिस्तान में शामिल होना नहीं चाहते थे. वह अपनी रियासत के लिए स्वतंत्र दर्जा चाहते थे.
उधर पाकिस्तानी नेताओं की यह सोच थी कि कश्मीर पाकिस्तान का ‘हिस्सा’ है क्योंकि रियासत की अधिकांश आबादी मुसलमान थी. किताब के मुताबिक कश्मीर के लोगों ने इसे इस तरह नहीं देखा. उन्होंने खुद को पहले कश्मीरी माना. क्षेत्रीय आकांक्षाओं का यह मुद्दा ही ‘कश्मीरियत’ कहलाता है. इसी वक्त राज्य में नेशनल कॉन्फ्रेंस के शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में चलाया गया लोकप्रिय आंदोलन महाराज से छुटकारा पाना चाहता था. साथ ही पाकिस्तान में शामिल होने के खिलाफ भी था. इस अध्याय में लिखा है, ‘नेशनल कॉन्फ्रेंस एक धर्मनिरपेक्ष संगठन था और इसका कांग्रेस के साथ लंबे समय से संबंध था. शेख अब्दुल्ला, नेहरू सहित कुछ राष्ट्रवादी नेताओं के व्यक्तिगत मित्र थे.’
फिर पाकिस्तान ने भेजे कबायली घुसपैठिए
किताब के इस अध्याय के मुताबिक अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान ने कश्मीर पर कब्जा करने के लिए कबायली घुसपैठिए भेजे. इसके बाद महाराज भारतीय सैनिकों की सहायता के लिए बाध्य हुए. भारत ने सैनिक सहायता दी और कश्मीर घाटी से घुसपैठियों को वापस खदेड़ दिया, लेकिन यह तब हुआ जब महाराजा ने भारत सरकार के साथ ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’ यानी भारत में शामिल होने के समझौते पर हस्ताक्षर कर दिया. इसी किताब के मुताबिक उस वक्त पाकिस्तान ने राज्य के एक बड़े हिस्से पर नियंत्रण जारी रखा, इसलिए मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ ले जाया गया.

‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’ के मुताबिक जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जे के साथ भारत का हिस्सा बनना था. जिसमें रक्षा, विदेश और संचार को छोड़कर बाकी सभी मामलों में निर्णय लेने का अधिकार जम्मू-कश्मीर का अपना होगा. बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक संविधान सभा के सदस्यों में इसे लेकर विरोध था. तत्कालीन पीएम नेहरू उस समय विदेश दौरे पर थे. तब तत्कालीन कार्यकारी प्रधानमंत्री सरदार पटेल ने इसपर अपनी मुहर लगाई थी. देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का ऐसा मानना था कि जम्मू-कश्मीर में एकबार स्थिति सामान्य हो जाए तो जनमत संग्रह कराया जाए. इसी के तहत नेहरू इस मामले को जनवरी 1948 में संयुक्त राष्ट्र(UN) में भी ले गए थे ताकि कश्मीर के लोग संयुक्त राष्ट्र के निगरानी में अपने भविष्य का फैसला ले सकें.
भारत के जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह कराने पर पाकिस्तान ने आपत्ति दर्ज की थी. इस मामले में UN की मध्यस्थता से भी इस मामले का कोई खास सोल्यूशन नहीं निकला. बस जो भाग दोनों देशों के पास था उन्हीं के पास रह गया और सब चीजें पहले की तरह ही रही.
क्या संयुक्त राष्ट्र संघ जाकर नेहरू ने गलती की?
इस बात को समझने के लिए हमने अंतरराष्ट्रीय संगठनों के मामले और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के एक्सपर्ट असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. विकास चंद्रा से बात की. उन्होंने कहा, ‘हमें तो पहले ये बात समझनी चाहिए कि जवाहरलाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री बनने से पहले एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे उन्होंने 10 साल से ज्यादा जेल में बिताए. हमें उनपर कोई लांछन लगाने से पहले उनके व्यक्तित्व को जान लेना चाहिए.’
डॉ. विकास आगे कहते हैं कि,’वर्तमान में जिन्हें नेहरू की गलतियां बताई जा रही है, उन्हें हमें उस दौर के हिसाब से समझने की जरूरत है. जब ये निर्णय लिए जा रहे थे उस वक्त देश नया-नया आजाद हुआ था. देश के पास संसाधनों की घोर कमी थी, लोगों को खाने के लाले पड़े थे. अंग्रेजों ने देश को चूस कर खोखला कर रखा था. उसी दौर में पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर पर कबयाली हमला बोल दिया. सेना के पास उस दौर में कश्मीर की दुर्गम परिस्थितियों में लड़ाई जारी रखने के लिए पर्याप्त संसाधनों का अभाव था. नेहरू और भारत सरकार उस समय में किसी भी प्रकार के युद्ध लड़ने की हालत में नहीं थे. देश के लिए युद्ध से अलग और भी जनसामान्य के मुद्दे थे जैसे लोगों को बेसिक चीजें मुहैया कराने की चुनौती जिन्हें प्रमुखता में रखना था.’
उन्होंने आगे बताया, ‘नेहरू के इस मुद्दे को UN में ले जाने के पीछे की भी सबसे बड़ी वजह ये थी कि वो ये चाहते थे कि जम्मू-कश्मीर के लोगों को लोकतान्त्रिक तरीके से भारत में शामिल किया जाए. नेहरू का ये मत था कि जो काम डेमोक्रेटिक तरीके से किया जा सकता है उसके लिए युद्ध लड़ने की क्या आवश्यकता है. जिसके लिए वो संयुक्त राष्ट्र(UN) जैसी संस्था के पर्यवेक्षण में जनमत संग्रह कराना चाहते थे. जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह पर नेहरू के विचार ये था कि उस वक्त कश्मीर में भारत के पक्ष में माहौल था और नेहरू को लगता था कि वहां के लोग भारत के पक्ष में ही मतदान करेंगे. नेहरू के इस कन्विक्शन के पीछे का ठोस वजह ये थी की पाकिस्तानी कबाइलियों ने जितनी बर्बरता पूर्वक कश्मीर के लोगों पर हमला किया था उससे वे पाकिस्तान का पक्ष में कभी निर्णय नहीं लेंगे.’
डॉ. विकास कहते हैं कि इस मुद्दे को UN में ले जाने का निर्णय अकेले मात्र नेहरू का नहीं था. ऐसे मुद्दों पर फैसला रक्षा पर कैबिनेट कमेटी करती है जिसमें प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, विदेश मंत्री और अन्य प्रमुख सदस्य होते हैं. वह आगे कहते हैं कि उस दौर में भारत अन्तराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग पड़ा हुआ था. भारत की स्थिति आज के जैसी नहीं थी. शीत युद्ध का दौर चल रहा था. अमेरिका और सोवियत यूनियन दो महाशक्तियां आपस में ही क्षद्म युद्ध लड़ रही थीं. तब लंबे समय तक युद्धरत रहना एक कठिन चुनौती थी.
नेहरू ने सीजफायर का फैसला क्यों किया?
अमित शाह के आरोपों पर कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी ने एक ट्वीट कर जवाब दिया है. मनीष तिवारी ने द गार्जियन की एक रिपोर्ट के हवाले से बताया है कि पाकिस्तान की तरफ से भेजी गई कबायली सेना से लड़ाई के वक्त नेहरू तत्कालीन कमांडर इन चीफ रॉबर्ट राय बुचर के संपर्क में थे. इस रिपोर्ट मेंक्लाइसिफाइड डॉक्युमेंट्स (गोपनीय दस्तावेज) के हवाले से पंडित नेहरू और बुचर के बीच हुए पत्राचार का जिक्र है. इसमें बुचर उन्हें सेना की हालात बताते हुए कश्मीर विवाद के सैन्य हल के बजाय कथित तौर पर राजनीतिक हल की सलाह देते नजर आ रहे हैं. मनीष तिवारी के ट्वीट और उसमें मौजूद रिपोर्ट को यहां नीचे देखा जा सकता है.
In the two months leading up to the ceasefire between the dominions of India and Pakistan on 1st January 1949 the Nehru Cabinet was being consistently given considered military advice by commander-in-chief, of the Indian Army Gen Sir Francis Robert Roy Bucher that the the…
— Manish Tewari (@ManishTewari) December 6, 2023