जानिए क्या होता है परिसीमन, इसके बिना लागू नहीं हो पाएगा महिला आरक्षण बिल
What is delimitation: पिछले दिनों संसद से महिला आरक्षण बिल पास तो हो गया, लेकिन वह अपने साथ फिर से कई मुद्दों को पुनर्जीवित कर…
ADVERTISEMENT
![जानिए क्या होता है परिसीमन, इसके बिना लागू नहीं हो पाएगा महिला आरक्षण बिल New Parliament of India](https://akm-img-a-in.tosshub.com/lingo/nwtak/images/story/202309/new-parliament-india-today.jpg?size=948:533)
What is delimitation: पिछले दिनों संसद से महिला आरक्षण बिल पास तो हो गया, लेकिन वह अपने साथ फिर से कई मुद्दों को पुनर्जीवित कर गया. उनमें से एक मुद्दा है परिसीमन. सरकार ने कहा कि जनगणना और परिसीमन के बाद ही महिला आरक्षण लागू होगा. क्या होता है परिसीमन? भारत में परिसीमन के मुद्दे पर बात आते ही कई दलों को क्यों होती है परेशानी? और परिसीमन को लेकर दक्षिण भारत के राज्य क्यों उठाते रहते हैं चिंतित करने वाले सवाल? आइए आपको इन सारे सवालों के जवाब बताते हैं.
क्या होता है परिसीमन, और क्यों है ये जरूरी?
अगर सरल शब्दों में समझें, तो हम कह सकते हैं कि परिसीमन एक ऐसी प्रक्रिया है, जो यह बताती है कि एक निश्चित क्षेत्र में एक निश्चित समयावधि के भीतर एक सांसद या विधायक कितने लोगों का प्रतिनिधित्व करेगा. परिसीमन इसलिए जरूरी होता है ताकि लोकसभा की सीटें राज्यों को उनकी आबादी के अनुपात में मिल सकें. इसका मूल उद्देश्य यह होता है कि सभी व्यक्तियों के लिए “एक वोट एक व्यक्ति” का मूल्य समान रहे.
भारत में लोकसभा सीटें आज भी वैसी ही हैं, जैसी वो 1971 में थीं. यानि तब से लेकर आज तक उनमें कोई बदलाव नहीं किया गया है. संविधान के अनुच्छेद 81 एवं 82 में हर दस साल के बाद होने वाली जनगणना के बाद लोकसभा की सीटों में बदलाव की बात कही गई है. इसमें बताया गया है कि संसद के संख्याबल को जनसंख्या के हिसाब से बदला जाएगा, जिससे कि सभी को बराबरी का मौका मिल सके.
ADVERTISEMENT
यह भी पढ़ें...
एक संसदीय क्षेत्र में जनसंख्या को आधार बनाकर “एक वोट एक व्यक्ति” के आधार पर सभी को बराबरी का अधिकार मिल सके. इसे ही “आनुपातिक प्रतिनिधित्व” प्रणाली कहा जाता है. बस समस्या यहीं खड़ी होती है, क्योंकि सभी राज्यों में जनसंख्या समान नहीं है. किसी राज्य की जनसंख्या स्थिर है, तो कहीं तेजी से बढ़ रही है.
अब बताते हैं कि असल समस्या कहां है
इसे आप ऐसे समझिए कि दक्षिण भारतीय राज्य आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल की कुल लोकसभा सीटें इस समय 129 हैं. वहीं अगर उत्तर भारत के कुछ हिंदी पट्टी वाले बड़े राज्यों की बात करें तो उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान की ही कुल लोकसभा सीटें 145 हैं. ये दक्षिण भारतीय राज्यों की अपेक्षा ज्यादा हैं. उत्तर भारतीय राज्यों में दक्षिण भारतीय राज्यों की अपेक्षा जनसंख्या वृद्धि दर ज्यादा है. दक्षिण भारतीय राज्यों को चिंता है कि धीमी जनसंख्या वृद्धि दर होने के कारण परिसीमन के बाद सीटें अपेक्षाकृत कम हो जाएंगी.
ADVERTISEMENT
परिसीमन की चिंता को आप आसान भाषा में ऐसे समझिए
संविधान के अनुच्छेद 81 और 82 में आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली की वजह से एक नागरिक एक वोट की व्यवस्था है. अब थोड़ा ध्यान दीजिए. परिसीमन होता है जनसंख्या की वजह से. जनसंख्या बढ़ रही है उत्तर भारतीय राज्यों की. अब जनसंख्या बढ़ेगी तो परिसीमन के बाद लोकसभा की सीटें भी बढ़ेंगी. भारत का संविधान यह आदेश देता है कि लोकसभा में सीटों का आवंटन प्रत्येक राज्य की जनसंख्या के आधार पर होना चाहिये. अब सीटें बढ़ेंगी तो लोकसभा में प्रतिनिधित्व ज्यादा होगा. प्रतिनिधित्व ज्यादा होगा तो लोकसभा में तूती बोलेगी.
ADVERTISEMENT
दक्षिण भारतीय राज्यों ने शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं और जन-जागरुकता की वजह से अपने यहां जनसंख्या वृद्धि दर को काबू किया है. कुछेक ने खुद को यूरोपीय देशों के मुकाबले लाकर खड़ा कर दिया है. अब अगर जनसंख्या के आधार पर परिसीमन होगा, तो दक्षिण के राज्यों की लोकसभा सीटें स्वतः घट जाएंगी. इसलिए वहां के नेताओं का तर्क है कि हमें अपने यहां विकास करने और विकास के हर पैमाने पर खरा उतरने के बाद भी ऐसी सजा मिल जाएगी.
दक्षिण भारत के कुछ नेताओं की बात भी जान लीजिए
पूर्व गृहमंत्री पी. चिदंबरम के बेटे कार्ति चिदंबरम कहते हैं कि अगर ऐसा होता है तो चुनावी तौर पर किसी भी नेशनल पार्टी को जीत हासिल करने के लिए सिर्फ हिंदी हार्टलैंड को ही जीतने की चुनौती होगी. उनका तर्क है कि ऐसी स्थिति में कोई भी नेशनल पार्टी दक्षिण भारतीय राज्यों की परवाह करना छोड़ सकती है, जो आगे चलकर संघीय ढांचे को कमजोर करने वाला साबित होगा.
वहीं तमिलनाडु से आने वालीं डीएमके नेता कनिमोझी एन. वी. एन. सोमू का कहना है कि तमिलनाडु ने फैमिली प्लानिंग प्रोग्राम सही तरीके से लागू किए हैं. यहां जनसंख्या वृद्धि दर नियंत्रित है. उनके मुताबिक उत्तर भारतीय राज्यों ने ऐसी ईमानदारी नहीं दिखाई है. उनका मानना है कि ऐसे में परिसीमन तो उन राज्यों को सजा देने जैसा हो जाएगा, जिन्होंने अच्छा काम किया.
इसके अलावा भी समय-समय पर दक्षिण भारतीय राज्यों के कई नेता इस पर मुखर होकर बोलते रहे हैं.
अब करते हैं आंकड़ों की बात
“Carnegie Endowment for International Peace” की रिपोर्ट “India’s Emerging Crisis of Representation” (भारत के प्रतिनिधित्व का उभरता संकट) के अनुसार अगर वर्तमान व्यवस्था के मुताबिक ही परिसीमन होता है, तो दक्षिण भारत के कई राज्यों को नुकसान होगा.
तमिलनाडु की वर्तमान में 39 सीटें है, जो घटकर 31 रह जाएंगी. यानि 8 सीटों का नुकसान. वहीं आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की मिलाकर कुल 42 सीटें हैं, जो घटकर 34 रह जाएंगी. उसी तरह केरल की सीटें 20 से 12 पहुंच जाएंगी. वहीं अगर उत्तर भारत की बात करें तो राजस्थान की सीटें 25 से 31, बिहार की 40 से 50 और उत्तर प्रदेश की 80 से 91 हो जाएंगी.
कब-कब हुआ है परिसीमन
भारत में परिसीमन आयोगों का गठन 4 बार किया गया है. 1952, 1963, 1973 और 2002 में परिसीमन आयोग अधिनियम. लेकिन जरा ठहरिए, यहां ध्यान दीजिए. 1976 में, कम आबादी वाले राज्यों के विरोध के कारण इंदिरा गांधी सरकार ने 2001 तक के लिए परिसीमन पर रोक लगाने का फैसला लिया. साल 1981 और साल 1991 की जनगणना के बाद परिसीमन नहीं किया गया. इसका मुख्य उद्देश्य अधिक जनसंख्या वाले राज्यों को परिवार नियोजन लागू करने और उनकी और अपनी जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए समय देना था. सोच यह थी कि कम जनसंख्या वाले राज्यों को अपनी जनसंख्या नियंत्रण के लिए दंडित नहीं दिया जाना चाहिए
हालांकि, जनसंख्या विभाजन बरकरार रहने के कारण अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने भी 2002 में एक संशोधन के माध्यम से परिसीमन प्रक्रिया को 2026 तक के लिए स्थगित कर दिया गया था. सरकार का तर्क यह था कि 2026 तक सभी राज्यों की जनसंख्या वृद्धि का औसत काफी हद तक एक समान स्तर पर आ जाएगा, लेकिन ऐसा संभव नहीं हो सका है.
ADVERTISEMENT