Rajasthan में एक ऐसा गांव जहां होली के दिन पुरूषों को गांव से निकाल देती हैं महिलाएं

मनोज तिवारी

राजस्थान के टोंक जिले में होली पर गजब की परंपरा, यहां गांव में केवल महिलाएं खेलती हैं होली.

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होली (Holi 2024) पर हर जगह रंगों में लोग सराबोर होते हैं. ढाप और चंग की थाप पर लोग झूमते हैं और होली पर बने पकवानों को लुत्फ लेते हुए फाग के गीत गाते हैं. वहीं होली पर कुछ अजब-गजब परंपराएं भी होती हैं जिन्हें सालों से स्थानीय लोग निभाते आ रहे हैं. ऐसी ही एक परंपरा है टोंक जिले (Tonk news) की नगर गांव की. 

यहां होली पर गांव पुरूषों से खाली हो जाता है. यहां बचती हैं तो केवल महिलाएं जो जमकर एक दूसरे के साथ होली खेलती हैं. वहीं पुरूष गांव के बाहर जाकर होली खेलते हैं. गांव के लोग बताते हैं कि यह परंपरा लगभग 200 वर्षों से चली आ रही है. 

परंपरा के अनुसार धुलेंडी की सुबह लगभग 8 बजे चंग व ढोल की थाप पर होली के पारंपरिक गीतों पर नृत्य करती हुई महिलाएं सभी पुरूषों को गांव से बाहर निकाल देती हैं. गांव निकाले के बाद पुरूष लगभग 3 किमी दूर पहाड़ी पर स्थित चामुंडा माता के मंदिर चले जाते हैं. सभी पुरूष यहां मंदिर परिसर में अपने अपने समाज की बैठकें करते हैं और समाज सुधार व सामाजिक कुरीतियों पर चर्चा करते हैं.

दोपहर बाद लगभग 3 बजे पुरूष लौटते हैं गांव

चामुंडा माता के मंदिर में बैठे सभी लोग दोपहर लगभग 3-4 बजे उस समय लौटते हैं जब महिलायें रंग खेलकर अपने अपने घरों को लौट चुकी होती हैं. केवल बीमार पुरूष और छोटे बच्चों को ही गांव में रहने की छूट होती है. 

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गढ़ के चौक पर खेलती हैं सामूहिक रंग

गांव में चली आ रही इस अनूठी परंपरा के तहत वहां गढ़ के सामने स्थित चौक में रंग भरा कड़ाव रख दिया जाता है. फिर सभी महिलाएं एक दूसरे को खुलकर रंगने में जुट जाती हैं. सुबह लगभग 11 बजे शुरू होने वाला रंगों का यह धमाल लगभग 2 बजे तक यूं ही चलता रहता है. महिलाएं एक दूसरे को रंगों से सरोबार करने में जुटी रहती है. ग्रामीण यह भी बताते हैं कि इस दौरान अगर गांव में कोई पुरूष आ जाता है तो महिलायें ना सिर्फ उसको कोड़ों से जमकर पिटाई करती हैं बल्कि गांव से बाहर निकाल कर ही दम लेती हैं.

सभी वर्गों व धर्मों की महिलायें होती हैं धमाल में शामिल

नगर की होली की एक ओर खूबी है. और वो यह कि यहां धर्म व जातियों के बंधन से परे हटकर सभी महिलायें धुलेंडी का पर्व पूरे उत्साह से खेलती हैं. पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही बातों के अनुसार यहां के तत्कालीन ठिकानेदार ने इस परंपरा की शुरूआत की थी ताकि वे भी आजादी से रंग खेल सकें.

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