आडवाणी की कहानी: रथ यात्रा से राम मंदिर आंदोलन तक, राजनीति में अमिट छाप छोड़ने वाला जीवन
लालकृष्ण आडवाणी की कहानी- जब एक सिंधी बालक से लेकर रथ यात्रा और राम मंदिर आंदोलन तक की राजनीतिक यात्रा, जिसने भारतीय राजनीति में अमिट छाप छोड़ी. अटल आडवाणी की जुगलबंदी, आपातकाल का संघर्ष और प्रधानमंत्री न बन पाने का दर्द. पढ़िए आडवाणी के जीवन की संपूर्ण गाथा.

बीसवीं सदी के तीसरे दशक के मध्य में साल 1927 में अविभाजित भारत के सिंध प्रांत के कराची में एक लड़के का जन्म हुआ. जिस परिवार में जन्म हुआ वो शिक्षित हिंदू कुटुंब था. खानदान के धमनियों में प्रशासक का रक्त प्रवाह होता था. लड़के को सिंध के उस इलाके से बहुत लगाव था, लेकिन भविष्य के गर्भ में नियति कुछ और ही लिख रही थी. जब वो नौजवान 20 साल का था तब देश आजाद हुआ लेकिन उसके दो टुकड़े हो गए, बड़ी संख्या में लोग पलायन का शिकार हुए. लोगों का घर और शहर छूट गया.
तब भविष्य को बचाने के लिए वर्तमान में ऐसी धूल उड़ी, जिसकी धुंध में अतीत से जुड़े सरोकार कुछ समय के लिए धूमिल हो गए. वो नौजवान भी अपने कुनबे से बिछड़ गया, पहले राजस्थान फिर दिल्ली पहुंचा. जहां एक नई पारी या कहूं तो एक लंबी राजनीतिक यात्रा अपने प्रतिनिधित्व के लिए उसका इंतजार कर रही थी. ये कहानी उस व्यक्ति की है, जिसे इस सदी के लोगों ने काला फ्रेम का चश्मा, सफेद होते बाल के साथ बदन को ढांके हिंदुस्तानी लिबास में देखा. ये किस्सा भारतीय राजनीति में अपनी प्रतिभा और कौशल के दम पर अमिट छाप छोड़ने वाले लालकृष्ण आडवाणी की है.
प्रारंभिक जीवन
लालकृष्ण आडवाणी का जन्म 8 नवंबर 1927 को हुआ था, जिसने तारीख यानी इतिहास में अपनी वो जगह बनाई जहां तक दूसरों का पहुंचना लगभग नामुमकिन सा है. बचपन में ही मां का साया सिर से उठ गया इसलिए शायद उनके व्यक्तित्व में पिता की झलक ज्यादा नजर आती है. शुरुआती पढ़ाई लिखाई स्थानीय स्तर पर ही हुई. आडवाणी जब बड़े हुए तो दूसरे शहर में कदम रखा. घर का वातावरण बिल्कुल ही धार्मिक था. लालकृष्ण आडवाणी के दादा संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे, उस इलाके में उनके ज्ञान की उपमा दी जाती थी. उसी परिवेश का असर आडवाणी पर भी हुआ.
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टेनिस कोर्ट से संघ कार्यालय तक
साल 1942 में स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद हैदराबाद में लालकृष्ण आडवाणी अपनी छुट्टियों के दौरान टेनिस सीख रहे थे. एक दिन आडवाणी के एक दोस्त ने खेल को बीच में ही छोड़ कर वापस जाने लगा, इस पर उन्होंने ने अपने दोस्त से आश्चर्य से पूछा, खेल अधूरा छोड़ कर कहां जा रहे हो. उनके मित्र का जवाब था. 'मैंने आरएसएस की सदस्यता ली है समय हो गया है उसकी शाखा में जाने का, मैं वहीं जा रहा हूं. दोस्त का आरएसएस दफ्तर जाने का सिलसिला अनवरत जारी रहा, जिसकी डोर पकड़ एक दिन आडवाणी भी संघ के कार्यालय में पहुंच गए. जहां वे जल्दी ही एक प्रचारक की भूमिका में आ गए.
छूट गया सिंध
अपनी जन्मभूमि को छोड़ने का दर्द क्या होता है, इस पीड़ा को वहीं बयान कर सकता है, जिसने अपनी मिट्टी की सौंधी सी महक को तज दिया है. सितंबर 1947 में जब पलायन ने अभिशाप की तरह देश के दामन को जकड़ लिया. इस दारुणता के शिकार असंख्य लोग हुए जिसमें एक नाम आडवाणी का भी था. वे 1947 के सितंबर में कराची से दिल्ली आ गए. विस्थापन का ये दर्द बहुत गहरा था, अभी तक का जो जीवन महलों में बीता था वो पलायन के कारण एक अदद आशियाना ढूंढने लगा था. घर और परिवेश से अलग होने की चोट गहरी थी लेकिन यहां आडवाणी को आरएसएस के रूप में एक संबल मिल गया था. दिल्ली आने के दो महीने बाद उनकी मुलाकात वीडी सावरकर से हुई है और एक सिलसिला चल पड़ा.
वाजपेयी से मुलाकात
साल 1951-52 में देश का पहला आम चुनाव हो रहा था. जनसंघ के तमाम नेता चुनाव की तैयारियों में लगे थे. उस समय लालकृष्ण आडवाणी राजस्थान में थे, जहां पहले वे केवल एक प्रचारक की भूमिका में थे लेकिन बाद में उन्हें राज्य में पार्टी के संगठनात्मक की जिम्मेदारी सौंप दी गई थी. उस समय अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी पर शानदार पकड़ और शब्दों के संधान के कारण श्यामा प्रसाद मुखर्जी के अनुवादक की भूमिका में थे और उनके साथ जगह-जगह चुनाव प्रचार में जाते थे. इसी क्रम में मुखर्जी के साथ वाजपेयी ट्रेन से राजस्थान गए, वहीं स्टेशन पर एक ऐसे रिश्ते की नींव पड़ी जिसे समय की ऊष्मा और आपसी सूझबूझ ने प्रगाढ़ बना दिया, जो आजीवन अटूट रहा.
दोनों नेताओं ने जनसंघ के प्रचार में अथक मेहनत की. चूंकि 1953 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु हो गई थी इसलिए जनसंघ का कुनबा थोड़ा कमजोर पड़ गया था. ऐसे में जनसंघ को दिल्ली में वाजपेयी की सहायता के लिए में एक ऐसे नेता की जरूरत थी जिसका मिजाज स्वदेशी हो और जुबान अंग्रेजी भाषा से परिपूर्ण. दीनदयाल उपाध्याय ने आडवाणी के कौशल और परिपक्वता को देखते हुए राजस्थान से 1957 के चुनाव के बाद दिल्ली बुला लिया. धीरे- धीरे वाजपेयी का रंग आडवाणी पर चढ़ने लगा. ये दोनों नेता साथ खूब समय बिताते और पार्टी के काम के अलावा साथ फिल्में भी देखा करते. ये रिश्ता समय के साथ गहरा होता चला गया और कालांतर में दिल्ली में बनी इस जोड़ी ने भारतीय राजनीति के क्षितिज पर एक अभूतपूर्व मानक स्थापित कर दिया.
जीवन संगिनी
37 साल के अविवाहित आडवाणी जनवरी 1965 में विजयवाड़ा में एकात्म मानव बाद के बारे में सुन रहे थे, जिसे दीनदयाल उपाध्याय ने लिखा था. लेकिन आडवाणी विजयवाड़ा से दिल्ली आने की बजाय मुंबई चले गए, जहां उनका विवाह हुआ और कमला उनकी जीवन संगिनी बनी. शादी के बाद दिल्ली में एक खुशरंग दुनिया आकार लेने लगी और जीवन उम्मीद और खुशी से सराबोर हो गया. जिस पर आगे चल कर चार चांद दोनों बच्चों जयंत और प्रतिभा ने लगा दिया.
भाजपा के हरिन पाठक याद करते हैं कि 'आडवाणी के खाने की टेबल पर एक तस्वीर रखी थी, जिसमें कमला, आडवाणी को घूर कर देख रही हैं. जब कभी मेहमान आते तो आडवाणी कहते इस फोटो से आपको अंदाजा लग जाएगा कि घर में किसका चलाता है.' ये साथ 52 साल तक चला और साल 2016 में दिल का दौरा पड़ने से आडवाणी की जीवनसंगिनी कमला का निधन हो गया.
संसद में कदम
1970 में जनसंघ ने आडवाणी को राज्यसभा भेज दिया. हालांकि इससे तीन वर्ष पहले ही आडवाणी के औपचारिक राजनीतिक करियर की शुरुआत हो गई थी. दरअसल 1967 में उन्हें दिल्ली महानगर परिषद का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था. ये वो दौर था जब पार्टी में पकड़ को लेकर बलराज मधोक और वाजपेयी के बीच खींचतान चल रही थी. इसी समय केंद्र की इंदिरा सरकार कई बड़े फैसले ले रही थी. मधोक हमेशा तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा की आर्थिक नीतियों का विरोध कर रहे थे, खासकर के बैंकों के राष्ट्रीयकरण को लेकर लेकिन वाजपेयी ने लोकसभा में इसका समर्थन किया था और अब उन्हें आडवाणी के रूप में राज्यसभा में भी एक साथी मिल गया था. वाजपेयी के उम्मीद के अनुरूप आडवाणी ने भी राज्यसभा में इंदिरा सरकार के इस कदम का स्वागत किया. आडवाणी राज्यसभा में 1989 तक रहे उसके बाद नई दिल्ली से 1989 का आम चुनाव जीत कर वे पहली बार लोकसभा पहुंचे.
आपातकाल और जेल
25 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री ने देश पर आपातकाल थोप दिया, जिसके बाद सत्ता अराजक हो गई और एक-एक कर तमाम विरोधी दल के नेताओं को जेल में भरा जाने लगा. आडवाणी उस समय बैंगलोर में जेपीसी की मीटिंग के लिए गए थे. जहां वाजपेयी समेत और कई कद्दावर नेता मौजूद थे. 26 जून की सुबह दिल्ली के संघ कार्यालय से फोन गया कि जयप्रकाश नारायण के साथ कई अन्य नेताओं को भी गिरफ्तार कर लिया गया है और जल्द उन्हें और वाजपेयी को भी अरेस्ट किया जा सकता है. इससे पहले वाजपेयी और आडवाणी ने आकाशवाणी पर सुबह 8 बजे इंदिरा गांधी की आवाज सुन ली थी. जिसके बाद ये दोनों नेता पुलिस का इंतजार करते हुए, सुबह का नाश्ता कर रहे थे. आखिरकार पुलिस ने सुबह 10 बजे वाजपेयी और आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया और बैंगलोर के सेंट्रल जेल के एक छोटे से कमरे में रख दिया. इसके अलावा उसी जेल के दूसरे कमरे में कांग्रेस ओ (cong o) के नेता मधु दंडवते और श्याम बाबू मिश्रा को भी रखा गया था. जेल में सबको काम बांटा गया था. जिसमे वाजपेयी के हिस्से खाना बनाना का काम आया था. आडवाणी याद करते हैं कि वाजपेयी द्वारा बनाया गया खाना बहुत स्वादिष्ट होता था. साल 1976 का राज्यसभा चुनाव भी आडवाणी ने जेल ही लड़ा था और वे गुजरात से राज्यसभा के सदस्य के रुप में निर्वाचित हुए थे.
मंत्री बने तो मीडिया को आजादी दी
साल 1977 में इंदिरा गांधी ने आपातकाल हटा कर लोकसभा चुनाव कराने की घोषणा कर दी. उनके सिपहसलारों का मानना था कि देश में माहौल मैडम के अनुकूल है, लेकिन धरातल पर ऐसा नहीं था. चुनाव से पहले तमाम विपक्षी पार्टियों ने आपस में गठजोड़ कर लिया. नतीजा ये हुआ कि इंदिरा गांधी 1977 का चुनाव बुरी तरह से हार गईं, यहां तक कि उन्होंने रायबरेली की अपनी सीट भी गंवा दी. जिसके बाद मोरारजी देसाई के नेतृत्व में आजाद भारत के पहली गैर कांग्रसी सरकार बनी और उसमें सूचना प्रसारण मंत्री लाल कृष्ण आडवाणी को बनाया गया. मंत्री बनने के बाद आडवाणी ने आपातकाल के दौरान जितने भी पत्रकारों पर प्रतिबंध लगाया गया था, उन्हें पुन: मुख्यधारा में लाने का काम किया साथ ही उन तमाम कानूनों को भी निरस्त किया जो प्रेस का गला घोंट रहे थे.
बीजेपी का उदय
तीन साल तक संसद अस्थिरता के दौर से गुजर रही थी. 1977 से 80 के बीच दो प्रधानमंत्री बदल गए. आपसी तालमेल कुछ ऐसा बिगड़ा कि देश में मध्यावधि चुनाव कराना पड़ा. 1980 के चुनाव में इंदिरा गांधी लोगों का विश्वास जितने में एक फिर से कामयाब हो गईं. उन्हें 362 सीटों पर जीत मिली थी. वही जनता पार्टी 32 सीटों पर सिमट गई और जनसंघ को तो इसकी आधी यानी महज 16 सीटें मिली. इस चुनाव परिणाम के बाद संघ से आए नेताओं पर दोहरी सदस्यता का धुआं लंबे समय से मंडरा रहा था, उसमें चिंगारी के साथ लौ भी नजर आने लगी. इस आखिरी फैसला लेने के लिए जनता पार्टी की बैठक 4 अप्रैल को बुलाई गई जिसमें ये निर्णय लिया गया कि पार्टी का कोई भी नेता आरएसएस का भी सदस्य नहीं हो सकता है. ये सुनने के बाद अटल- आडवाणी की जोड़ी ने ये ऐलान कर दिया कि 5 और 6 अप्रैल को जनसंघ की रैली होगी. दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में मंच सजा, लोग इकठ्ठा हुए और लाल कृष्ण आडवाणी ने मंच से नई पार्टी का ऐलान कर दिया. जिसके पहले अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी बने.
अध्यक्ष की भूमिका में आडवाणी
कमोबेश पांच साल पुरानी पार्टी के लिए 1984 का आम चुनाव पहला राजनीतिक प्रयोग था. तब पार्टी की कमान वाजपेयी के हाथ में थी . इंदिरा गांधी की हत्या हो जाने की वजह से इस आम चुनाव में कांग्रेस के प्रति सहानुभूति की लहर थी. जिस वजह से भाजपा मात्र दो सीट ही जीत सकी. पार्टी के लिए ये बहुत बड़ा झटका था. कुछ लोगों ने तो ये आरोप भी लगा दिया कि वाजपेयी के नेतृत्व में पार्टी ने अपनी विचारधारा को ही छोड़ दिया है. इस वजह से ही पार्टी को भारी पराजय का सामना करना पड़ा. वाजपेयी के प्रतिपक्ष में पार्टी के अंदर एक महकमा खड़ा होने लगा. जिसका साफ इशारा था कि वे अध्यक्ष पद को छोड़ दें. बीजेपी अपने नए अध्यक्ष के तलाश में जूट गई, पहले विजयाराजे सिंधिया से पूछा गया जब उन्होंने इनकार कर दिया, तब वाजपेयी के पास बस एक ही नाम था जिस पर वे आंख बंद कर के भरोसा कर सकते थे. वे नाम था लाल कृष्ण आडवाणी का और मई 1986 में बीजेपी को आडवाणी के रूप दूसरा अध्यक्ष मिल गया.
आडवाणी के नेतृत्व में पार्टी ने उस समय हो रहे राज्यों के चुनाव अच्छा प्रदर्शन किया, साथ ही धारा 370, समान नागरिक संहिता और गौ हत्या पर आडवाणी के साथ पूरी पार्टी मुखर रूप से बोलने लगी. एक तरह से एक विशेष वर्ग की पार्टी के तौर पर बीजेपी की पहचान बनने लगी. उनकी मेहनत को इनाम मिला और लगातार दूसरी बार 1988 में वे पार्टी के अध्यक्ष चुने गए. जिसके बाद साल 1989 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 85 साटें मिली और ये एक अध्यक्ष के रुप में आडवाणी बहुत बड़ी उपलब्धि थी. आडवाणी के ही नेतृत्व में पार्टी में प्रमोद महाजन, सुषमा स्वराज, राजनाथ सिंह जैसे नए नेताओं को अवसर मिला. आडवाणी इससे पहले भी 1973 से भारतीय जनता पार्टी के गठन तक अध्यक्ष की भूमिका निभा चुके थे.
कमंडल के रथ पर
1989 में वीपी सिंह की सरकार को भाजपा ने बाहर से समर्थन दिया था, लेकिन जब वीपी सिंह ने मंडल का राग छेड़ा तो आडवाणी कमंडल के रथ पर सवार हो कर यात्रा पर निकल गए. 25 सितंबर 1990 को गुजरात के सोमनाथ से उत्तर प्रदेश के अयोध्या तक के लिए आडवाणी ने एक रथ यात्रा निकाली. जिसे नाम दिया गया राम रथ यात्रा. इस यात्रा को 16 राज्यों से हो कर गुजरना था. जैसे-जैसे रथ आगे बढ़ रहा था साथ जनसैलाब जुड़ता चला जा रहा था. केंद्र की वीपी सिंह सरकार के लिए ये यात्रा एक चुनौती बन गई थी और वे इसे कैसे भी रोकना चाहते थे. आडवाणी रथ के साथ जब बिहार के समस्तीपुर पहुंचे तो 23 अक्टूबर 1990 को राष्ट्रीय कानून की धारा 3 के तहत उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. गिरफ्तारी का ये आदेश बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने दिया था. इस गिरफ्तारी ने आडवाणी के कद को एक हिंदू नेता के तौर पर और बड़ा कर दिया. इसके अलावा पार्टी के जनाधार को भी मजबूती प्रदान किया. इसी यात्रा के बाद देश के सबसे बड़े सूबे में भारतीय जनता पार्टी ने पहली बार कल्याण सिंह की अगुवाई में सरकार का गठन किया. हालांकि इसी यात्रा के बाद 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद को गिरा दिया गया. इस घटना के दौरान वहां आडवाणी भी मौजूद थे. जिन्होंने कुछ दिन बाद एक समाचार पत्र में आर्टिकल लिख कर बताया कि 6 दिसंबर उनके जीवन का सबसे दुखद दिन था.
प्रधानमंत्री वाजपेयी होंगे.
11 नवंबर 1995 जगह मुंबई का शिवाजी पार्क में बीजेपी ने एक विशाल रैली का आयोजन किया था. जिसे बतौर पार्टी अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी संबोधित कर रहे थे. आडवाणी ने अचानक मंच से ऐलान किया कि आगामी लोकसभा चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे. इस ऐलान के बाद सब अवाक रह गए क्योंकि इसकी उम्मीद न ही पार्टी के कार्यकर्ता और न ही आरएसएस को थी. जब आडवाणी अपने होटल लौटे तब उनके नजदीकी गोविंदाचार्य ने पूछा, 'आरएसएस से सलाह लिए बिना आपने इतनी बड़ी घोषणा कैसे कर दी? तब 'आडवाणी ने जवाब दिया 'अगर मैंने संघ के इसके बारे में पूछा होता तो वो इस बात को कभी नहीं मानते.'कुछ लोगों ने इसके बाद ये कहा कि आडवाणी ने बलिदान दिया है लेकिन वे हर बार इस बात को खारिज कर के कहते रहे ' मैंने कोई बलिदान नहीं दिया पार्टी के लिए जो मुझे उचित लगा बस मैंने वो किया है.
वाजपेयी सरकार में मंत्री
साल 1998 में जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में गठबंधन की सरकार बनी तो लाल कृष्ण आडवाणी पहले गृह मंत्री और फिर बाद में देश के उप प्रधानमंत्री बने. इस दौरान अटल-आडवाणी की जोड़ी ने कई बड़े फैसले लिए. देश की उन्नति और प्रगति के लिए एक साथ कई कदम उठाए. उसी दौरान आगरा में एक शिखर सम्मेलन हुआ. जिसको आयोजित कराने में लाल कृष्ण आडवाणी की महत्वपूर्ण भूमिका थी. जिसमें शामिल होने पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ आए थे. हालांकि ये सम्मेलन असफल हो गया था.
प्रधानमंत्री नहीं बन पाने का मलाल
2004 के आम चुनाव में देश की जनता ने वाजपेयी सरकार को नकार दिया था. जिसके एक साल बाद वाजपेयी ने "न मैं थका हूं न रिटायर हुआ हूं" कह कर आडवाणी के हाथ में पार्टी की कमान दे दी थी. 2009 का लोकसभा चुनाव बीजेपी ने आडवाणी की अगुवाई में ही लड़ा था. आडवाणी को बहुत उम्मीद थी की वे कम से कम एक बार देश के प्रधानमंत्री बन जाएंगे. लेकिन देश की जनता को कुछ और ही मंजूर था. जब लोकसभा चुनाव के नतीजे घोषित हुए तो आडवाणी के हाथ निराशा लगी. क्यों पार्टी चुनाव हार गई थी. उसके बाद 2014 में जब लगा सब कुछ अनुकूल है, तब आला कमान ने उनकी जगह गुजरात मुख्यमंत्री को पार्टी का नेता घोषित कर दिया.
नोट: यह सारी जानकारी विनय सीतापति की किताब जुगलबंदी और लाल कृष्ण अडवाणी की आत्मकथा My Life My country से ली गई है.










