अब मेरठ के बिगुल का बजेगा दुनिया में डंका, मिल गया GI टैग
मेरठ के बिगुल को GI टैग मिल चुका है. मेरठ में पहली बार 1885 में जाली कोठी में बिगुल बनाया गया था. मेरठ का बिगुल देश के अधिकतर आर्म्ड फोर्स के पास है. RSS के पथसंचलन में भी बिगुल का इस्तेमाल होता है. पहले युद्ध में बिगुल का इस्तेमाल होता था.

मेरठ के इतिहास में एक और गौरवशाली इबारत लिखी गई है. मेरठ के विश्व प्रसिद्ध वाद्य यंत्र बिगुल को आधिकारिक रूप से जीआई टैग दे दिया गया है. इस टेक के साथ अब मेरठ का बिगुल विश्व भर में अपनी अलग पहचान के साथ जाना जाएगा.
जी आई टैग से बरसों पुराने इस कारोबार को सम्मान मिला है. अब ये 200 साल पुरानी विरासत को विश्व स्तर पर स्थापित करने का मौका भी माना जा रहा है. गौरतलब है कि मेरठ में 1885 में पहली बार जली कोठी में बिगुल बनाया गया था. मेरठ की जानी-मानी नादर अली एंड कंपनी ने कारोबार की नींव रखी. आज भी इस कंपनी में परिवार की पीढ़ी दर पीढ़ी इस काम में लगी है. इसके अलावा मेरठ में 500 के आसपास छोटी-बड़ी कंपनियां हैं, जो इस तरीके के वाद्य यंत्र बनती हैं.
बिगुल का मुहावरों में खूब इस्तेमाल
बिगुल का मुहावरों में खूब इस्तेमाल हुआ पर कम ही लोगों को पता होगा कि इसे बनाने की शुरूआत मेरठ से हुई थी. मुहावरों में 'बिगुल बजाना' मतलब युद्ध की घोषणा करना या किसी को उत्साहित करना होता है. मुहावरों में "बिगुल" का इस्तेमाल अक्सर जोश भरने या किसी काम को करने के लिए प्रेरित करने के संदर्भ में किया जाता है. ऐलान शब्द की जगह पर भी कई बार बिगुल का इस्तेमाल होता है जैसे युद्ध का ऐलान कर दिया की जगह युद्ध का बिगुल फूंक दिया.
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ऐतिहासिक रूप से बिगुल का इस्तेमाल युद्ध के दौरान सैनिकों को सावधान करने के लिए किया जाता था. सैन्य शिविरों में सैनिकों को जगाने, अलर्ट करने के लिए बिगुल का इस्तेमाल होता रहा है. परेड के दौरान भी बिगुल का इस्तेमाल किया ताजा है. देश की ज्यादातर आर्म्ड फोर्स में मेरठ का बिगुल शामिल है. RSS की स्थापना दिवस पर भी बिगुल बजाया जाता है.
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