मध्यप्रदेश में सियासी खींचतान...क्या सीएम मोहन यादव से नाराज है मंत्री? सामने आ रही ये जानकारी
मध्य प्रदेश की सियासत में वरिष्ठ नेताओं की नाराजगी और मुख्यमंत्री मोहन यादव की कार्यशैली से पार्टी में तनाव बढ़ा है, जिसका सीधा असर जनता और प्रशासन पर पड़ रहा है. अगर समय पर संतुलन नहीं बैठाया गया तो भाजपा की साख और आगामी चुनावी संभावनाएं भी कमजोर हो सकती हैं.

मध्य प्रदेश की सियासत इन दिनों विधानसभा से ज्यादा दिल्ली और बैठकों के कारण चर्चा में है. बीजेपी के अंदर चल रही खींचतान, कुछ वरिष्ठ नेताओं की नाराजगी और मुख्यमंत्री मोहन यादव की काम करने की शैली पर सवाल उठ रहे हैं.
इसका असर सिर्फ पार्टी के भीतर नहीं, बल्कि आम जनता और राज्य के प्रशासन पर भी दिख रहा है.
क्या मंत्री नाराज हैं?
बीजेपी का कहना है कि जो बैठकें हो रही हैं, वो रूटीन हैं और संगठन से जुड़े मुद्दों पर चर्चा हो रही है. लेकिन वरिष्ठ पत्रकार अरुण दीक्षित की मानें तो कैलाश विजयवर्गीय, प्रह्लाद पटेल, राकेश सिंह और नरेंद्र सिंह तोमर जैसे बड़े नेता मुख्यमंत्री मोहन यादव से पूरी तरह संतुष्ट नहीं हैं.
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नाराज़गी के मुख्य कारण हैं:
- मंत्रियों के साथ भरोसे की कमी
- कैबिनेट को बिना बताए फैसले लेना
- बड़े प्रोजेक्ट्स पर एकतरफा निर्णय (जैसे उज्जैन में भूमि नीति) और दिल्ली नेतृत्व से बार-बार हस्तक्षेप की अपीलें
उनका कहना है कि कई नेताओं ने अपनी शिकायतें दिल्ली तक पहुंचा दी हैं. असल दिक्कत यह है कि मोहन यादव के पास अपना कोई मज़बूत विधायक गुट नहीं है. वे दिल्ली के भरोसे सीएम बने, लेकिन अब साथियों को साथ लेकर चलने में कठिनाई आ रही है.
इस माहौल को देखते हुए अगर समय रहते हालात नहीं सुधरे, तो नुकसान पार्टी से ज़्यादा जनता और प्रशासन को होगा.
किन मुद्दों पर मंत्रियों में है नाराजगी
मुख्यमंत्री मोहन यादव ने गृह, सामान्य प्रशासन, माइनिंग जैसे प्रमुख और संवेदनशील मंत्रालय अपने पास रखकर सत्ता का पूरा नियंत्रण खुद के हाथ में रखा है.
कई वरिष्ठ मंत्री, खासकर कैलाश विजयवर्गीय जैसे नेता, खुद को उपेक्षित और हाशिए पर महसूस कर रहे हैं क्योंकि उन्हें पर्याप्त और सम्मानजनक भूमिका नहीं मिली है.
उज्जैन भूमि-विवाद और संघ की आपत्तियां, भूमि नीति को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व अन्य संगठनों में नाराजगी, जिसे केंद्रीय नेतृत्व तक पहुंचाया गया.
प्रदेश में कानून-व्यवस्था को लेकर गंभीर सवाल उठ रहे हैं, चाहे वो इंदौर की घटनाएं हों या मछली कांड जैसी शर्मनाक घटनाएं, जिन पर कार्रवाई को लेकर भी संदेह बना हुआ है. वहीं मंत्रिमंडल के भीतर समन्वय की कमी है, जहां कई मामलों में विभागीय प्रस्ताव मंत्रियों को बाईपास कर सीधे आगे बढ़ाए जा रहे हैं.
अगर नाराज हैं तो नुकसान किसे होगा?
इस पूरी स्थिति का प्रभाव केवल कुछ नेताओं तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका असर तीन अहम स्तरों पर देखा जा सकता है, जनता, पार्टी और व्यक्तिगत नेताओं पर और सबसे बड़ा खतरा उन नीतियों और प्रशासनिक ढांचे को है जिन पर राज्य की स्थिरता टिकी होती है.
1. सबसे बड़ा नुकसान आम जनता और प्रशासन को
राज्य सरकार और संगठन के बीच चल रही खींचतान का सीधा असर आम जनता पर पड़ेगा। जब नीतियों का क्रियान्वयन धीमा पड़ेगा, निर्णयों में देरी होगी या प्रशासनिक प्राथमिकताएं बार-बार बदलेंगी, तो किसान, श्रमिक और सामान्य नागरिक ही सबसे पहले प्रभावित होंगे। उज्जैन के विकास प्रोजेक्ट्स, इंदौर की कानून-व्यवस्था या चीनी मिलों से जुड़े निर्णय इसका उदाहरण हैं. नीतिगत अनिश्चितता, स्थानीय शिकायतों की अनदेखी और अफसरशाही में भ्रम का बोझ अंततः आम आदमी ही उठाता है.
2. बीजेपी की छवि और चुनावी संभावनाएं
अंदरूनी खींचतान और वरिष्ठ नेताओं की नाराज़गी अगर खुलकर सामने आती है, तो भाजपा की अनुशासित और संगठित पार्टी की छवि को नुकसान हो सकता है. विपक्ष इस स्थिति को एक हथियार की तरह इस्तेमाल करेगा, जिससे पार्टी की पकड़ कमजोर हो सकती है खासकर 2028 के महाकुंभ जैसे बड़े आयोजन और 2028-29 के चुनावों को देखते हुए. अगर हालात नहीं सुधरे, तो यह संकट नेतृत्व के भरोसे और संगठनात्मक ताकत दोनों को झकझोर सकता है।
3. मोहन यादव, वरिष्ठ मंत्री और संगठन
मोहन यादव: मुख्यमंत्री की भूमिका में वह वह सामूहिक नेतृत्व नहीं बना पाए हैं जिसकी उम्मीद थी. वे प्रधानमंत्री मोदी जैसी निर्णायक भूमिका निभाना चाहते हैं, पर उनके पास वैसा राजनीतिक आधार या सर्वसम्मति नहीं है. उनके सहयोगी ही अगर खुद को दरकिनार महसूस करें, तो उनका नियंत्रण और छवि दोनों कमजोर हो सकते हैं.
वरिष्ठ मंत्री: जैसे कैलाश विजयवर्गीय, प्रह्लाद पटेल या राकेश सिंह — जो खुद को सत्ता से कटे हुए महसूस कर रहे हैं. अगर उनकी नाराजगी का समाधान नहीं हुआ तो या तो वे निष्क्रिय हो सकते हैं या संगठन में शिफ्ट किए जा सकते हैं, जिससे उनके क्षेत्रीय प्रभाव में गिरावट आएगी.
प्रदेश अध्यक्ष व संगठन: संगठन के नए नेतृत्व पर दबाव है कि वह इन गुटों को संतुलित करे। अगर यह संतुलन नहीं बना तो पार्टी का जमीनी ढांचा कमजोर पड़ सकता है.
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