सियासी किस्सेः इंदिरा गांधी से मतभेद पर इस सीएम ने कुर्सी छोड़ जनता से खास अंदाज में मांगी माफी

गौरव द्विवेदी

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Siasi Kisse: राजस्थान के बाबूजी कहे जाने वाले मोहनलाल सुखाड़िया की आज पुण्यतिथि है. सूबे की सत्ता पर 17 साल तक काबिज रहने वाले पूर्व सीएम को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा. 70 के दशक में इंदिरा गांधी के विरोधी गुट में शामिल सुखाड़िया की परेशानी कभी कम नहीं रही. डेढ़ दशक से ज्यादा समय तक सत्ता में रहने के बाद सुखाड़िया ने साल 1968 के दौरान अविश्वास प्रस्ताव का सामना किया. हालांकि इस दौरान उन्होंने अपनी सरकार तो बचा ली. लेकिन यही से शुरू हुई वह कहानी, जिसने ना सिर्फ सुखाड़िया बल्कि राजस्थान की भी राजनीति की दशा और दिशा बदलकर रख दी.

दरअसल, साल 1969 के दौरान कांग्रेस के बैंगलोर में हुए अधिवेशन में पार्टी दो गुटों में बंट गई थी और सुखाड़िया ने इंदिरा गांधी के विरोधी गुट सिंडिकेट कांग्रेस को समर्थन दिया. यही से राजस्थान कांग्रेस भी 2 धड़ों में बंट गई. एक इंदिरा का गुट और एक सुखाड़िया का गुट. लेकिन कुछ ही समय बाद सुखाड़िया ने सीएम पद त्याग दिया था.

जयपुर से सत्ता-सुख त्याग कर सुखाड़िया ट्रेन से उदयपुर के सिटी रेलवे स्टेशन पहुंचे तो वहां से दुर्गा नर्सरी रोड़ स्थित उनके निवास तक 25 स्वागत द्वार बने हुए थे. हजारों लोग अपने प्रिय राजनेता पर पुष्प वर्षा कर रहे थे. उदयपुर पहुंचने पर उन्होंने अपने संक्षिप्त भाषण में कहा कि आपने मुझे वोट दिया. आज मैं आपके उस वोट की प्रतिष्ठा को सुरक्षित  और सम्मानपूर्वक वापिस भेंट करने के लिए आपके बीच आ गया हूं. मैं एक कार्यकर्त्ता से मुख्यमंत्री बना था और स्वेच्छा से पुनः मुख्यमंत्री से कार्यकर्त्ता बनकर आपके बीच आ गया हूं.

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इस्तीफा देकर ट्रेन से पहुंचे घर, जनता ने सजा दिया था शहर
हालांकि इस इस्तीफे के बाद भी उनके गृह जिले उदयपुर में जनता का प्रेम अपने नेता के लिए कम नहीं हुआ. ‘राजस्थान के बाबूजी मोहनलाल सुखाड़िया’ किताब के अनुसार जब
में आया था. आप लोगों के स्नेह और विश्वास के सहारे मैं इस क्षेत्र में आगे बढ़ सका. मैं आज फिर स्वेच्छा से एक सामान्य नागरिक बनकर आपके बीच आ रहा हूं. इस अवधि में मैं सदैव राजस्थान के व्यापक हितों को सामने रखकर चला. मेरी सदैव यही कोशिश रही कि मैं किसी को नुकसान नहीं पहुंचाऊं. लेकिन जाने-अनजाने में जो गलतियां हुई हों, उन्हें भूलने की कृपा करें.

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सुखाड़िया के पास था बहुमत, लेकिन भारी पड़ी इंदिरा की नाराजगी
उनके करियर में मोड़ आया मई 1969 के बाद. जब राष्ट्रपति जाकिर हुसैन का निधन के बाद कांग्रेस संसदीय दल की 12 जुलाई 1969 की बैठक हुई. जिसमें नीलम संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया. इस उम्मीदवार से इंदिरा गांधी खुश नहीं थीं. उस दौरान जब इंदिरा ने ‘अन्तरात्मा की आवाज’ पर राष्ट्रपति निर्वाचन में मतदान के लिए कांग्रेस विधायकों और सांसदों से अपील की. तब राजस्थान के अधिकांश सांसदों और विधायकों ने सुखाड़िया के नेतृत्व में नीलम संजीव रेड्डी को ही मतदान किया था. बस यही से सुखाड़िया को इंदिरा गांधी की नाराजगी सहनी पड़ी थी. हालांकि इस दौरान राजस्थान के नेता बरकतुल्ला खां, शिवचरण माथुर, पूनमचन्द विश्नोई और लक्ष्मी कुमारी चुण्डावत ने वीवी गिरि के समर्थन में वोट किया था.

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इसके बाद देश में 1971 में लोकसभा के मध्यावधि चुनाव हुए. सुखाड़िया के नेतृत्व में राजस्थान कांग्रेस ने चुनाव लड़ा और कांग्रेस ने 14 सीटों पर विजय हासिल की. दूसरी ओर,  1971 में पाकिस्तान के दो टुकड़े कर बांग्लादेश के निर्माण ने इंदिरा गांधी को और मजबूत बना दिया. अब सुखाड़ियाजी को अनुमान हो गया था कि ज्यादा समय तक मुख्यमंत्री रहना मुश्किल है. कांग्रेस दल और विधानसभा में बहुमत होने के बावजूद सुखाड़िया को पद छोड़ना पड़ा. हाईकमान के निर्देशन पर सुखाड़िया ने 8 जुलाई 1971 को मुख्यमंत्री पद से त्याग पत्र दे दिया. 9 जुलाई, 1971 को बरकतुल्ला खाँ को राजस्थान का नया मुख्यमंत्री बना दिया गया. जिसके बाद सुखाड़िया के लंबे कार्यकाल पर विराम लग गया.

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विधायक बोले कि सुखाड़िया के इस्तीफे से छा जाएगा अंधेरा 
पं. नवलकिशोर शर्मा ने एक संस्मरण में लिखा कि जब सुखाड़ियाजी को मुख्यमंत्री पद से हटाया जा रहा था, तब विधानसभा में कांग्रेस दल का पूर्ण बहुमत था. उनके खिलाफ कोई नहीं था. करीब 105 विधायक इंदिरा गांधी के पास गए और उनसे कहा कि सुखाड़ियाजी के मुख्यमंत्री नहीं रहने से राजस्थान कांग्रेस में अंधेरा छा जायेगा. जिस पर गांधी ने जवाब दिया कि अंधेरे के बाद ही प्रकाश आता है. सभी उनकी भावना समझ गए और वापस जयपुर लौट आए. हीरालाल देवपुरा के अनुसार जब राजस्थान से गया एक प्रतिनिधि मंडल गांधी से मिला और सुखाड़िया को त्याग पत्र नहीं देने के लिए बोलने को कहा. पूर्व पीएम ने विधायकों से कहा कि सुखाड़िया को मना लो. लेकिन हकीकत सब जानते थे कि इंदिरा गांधी खुद भी यह नहीं चाहती थीं.

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